प्रशंसाओं से अपनी मुग्ध होकर बोल उठता है।
पिघल जाती है प्रतिमा और पत्थर बोल उठता है॥
ये उजले-उजले कपड़ों वाले मीठे राजनेता सब,
कभी जब बात करते हैं निशाचर बोल उठता है॥
ग़ज़ल मेरी उड़ा देती है उनकी रात की नींदें,
मेरे शब्दार्थ का अन्तरनिहित स्वर बोल उठता है॥
कहाँ, किस घाट से लायेंगी अब ये गोपियाँ पानी,
कन्हैया तोड़ देते हैं तो गागर बोल उठता है॥
तुम्हारे रूप का लावन्य कर देता है स्तंभित,
मनोभावों का मेरे अक्षर-अक्षर बोल उठता है॥
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