इस्मत चुगताई को अपने लड़की होने का दुःख पहली बार आगरे की गलियों में हुआ जब लड़कों की तरह उछल-कूद करने और कुलांचें भरने पर पास-पड़ोस और सगे संबंधियों के आक्रोश और टीका टिप्पणियों का निशाना उनको अपनी अम्मा के माध्यम से बनना पड़ा.
मुझे अपने लड़की या बिहारी महिलाओं की शब्दावली में 'बेटी-ज़ात' होने का आभास और दुःख छे वर्ष की अवस्था में पहली बार बग्घी गाड़ी पर बैठने के क्षणों में हुआ.
पटना से नगर नह्सा अपने ननिहाल जाते हुए मुझे बंद बग्घी गाड़ी पर अम्माँ के साथ बैठना पड़ा. भइया ऊपर कोचवान के साथ ठाठ से बैठे. और तो और कोचवान के हाथ से चाबुक लेकर मुझे जलाने के लिए बार-बार उसे लहराते भी थे. मैं ने भइया के साथ बैठने की ज़िद की तो अम्माँ की दांत पड़ी कि कहीं बेटी ज़ात भी लड़कों की तरह कोचवान के साथ बैठते अच्छी लगती है. तभी मैं ने दिल से प्रार्थना की कि अल्लाह मुझे लड़की से लड़का बना दे कि बग्घी की छत पर कोचवान के बराबर बैठ कर चाबुक लहरा सकूं. लेकिन तुरत ही अपनी इस प्रार्थना की स्वीकृति की संभावनाओं से दिल दहल उठा. अगर जो समुच में अल्लाह ने लड़का बना दिया तो फिर भइया की तरह पढ़ना पड़ेगा और पाठ याद न होने की स्थिति में या जी लगा कर न पढने पर पिटाई. क्योंकि उस छोटी सी उम्र में भी इतनी बात तो पता थी ही कि मैं चूँकि लड़की हूँ इस लिए ज़्यादा पढ़ाई लिखाई ज़रूरी नहीं है.बड़ी हुई, शादी हुई और वारे-नियारे हुए. अच्छे 'भाग' और अच्छे 'पति-परमेश्वर' की कृपा से. उन दिनों पैदाइश के साथ ही यह पाठ भी लड़की को पढाया जाता था.
बेटी ज़ात को नोकरी थोडी करना है जो सुबह शाम उसे पढाने के लिए लेकर बैठ जाती हो ? मेरी फुफियाँ अम्माँ को शर्म दिलाया करतीं. सो पढ़ने से जान तो न बचती थी कि अम्माँ को भी धुन थी कि बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाय. लेकिन भइया की तरह पिटाई भी न होती थी. इसलिए मैं ने मन की पूरी गहराई के साथ पहली प्रार्थना में यह परिवर्तन किया कि अल्लाह बग्घी गाड़ी में बैठने के वक्त मुझे लड़का बना दे ताकि भइया की बराबरी और कोचवान की निकटता प्राप्त हो सके और पढने के वक्क्त लड़की रहने दे कि पिटाई से बच सकूं. पता नहीं फरिश्तों ने किस उकताहट में मेरी दोनों प्रार्थनाएं नोट कीं कि अल्लाह मियाँ के यहाँ ये कुछ उलटी-सीधी होकर पहुंचीं. स्वीकृति तो प्राप्त हुई, मगर लड़की होने का खमियाज़ा तो आम लड़कियों और फिर औरतों की तरह भुगतना ही पड़ा, लेकिन लड़कों की तरह पापड़ बेल कर पढ़ाई और फिर मर्दों की तरह कमाई भी करनी पड़ी. अशरफ भइया जो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के प्रथम पंक्ति के मार्गदर्शकों में शुमार हुए मुझ पर बड़ा रॉब झाडा करते थे. एक तो बेटा ज़ात दूसरे उम्र में मुझसे बड़े.अम्माँ की नज़रों में उन्हें मुझपर दुहरी वरीयता प्राप्त थी. पढाते तो मुझे ख़ाक न थे लेकिन पढाने के नाम पर अपने ज्ञान का रोब ज़रूर डालते थे. एक बार मुझे नीचा दिखाने के लिए अचानक मेरी परीक्षा ले ली.
'अच्छा बताओ - भेड़ और भेडिया में क्या अन्तर है ?
डर के मारे मेरी जान निकल गई कि अब ग़लत जवाब देने पर अम्माँ से ज़रूर शिकायत होगी कि जी लगा कर पढ़ती भी नहीं है. अपनी समझ से मजाक में बात टालने के ख़याल से मैं ने कहा -
'भेडिया खाता है, भेड़ खाते हैं.'
उम्मीद के बिल्कुल विपरीत भइया बहुत खुश हुए और खूब ही खूब शाबाशी दी. शायद भइया को अपने स्कूल के मास्टरों पर रोब जमाने के लिए अच्छा सा वाक्य हाथ लग गया था.
होनी कुछ ऐसी हुई कि यही तीखे कंटीले भइया मेरे राजनीतिक गुरु भी बने. मार्क्स का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो मैं ने पहली बार उन्हीं की पुस्तकों में से चुराकर पढ़ा और जब उसका एक-एक शब्द मन और मस्तिष्क में घर करने लगा तो मैं ने सच्चे अर्थों में भइया की वरीयता स्वीकार कर ली. यद्यपि इस वरीयता की बुनियाद न उनका लड़का ज़ात होना था न उम्र में मुझ से बड़ा होना. क्योंकि बड़कपन अक्ल से आता है न कि उम्र से. मज़े की बात यह है कि तब से लेकर आज तक मैं उनकी वरिष्टता, योग्यता और श्रेष्ठता को मानती चली आ रही हूँ.
उर्दूनामा से साभार रूपांतरित : परवेज़ फ़ातिमा