खामोश होगी कब ये ज़बाँ कुछ नहीं पता ।
बदलेगा कब निज़ामे- जहाँ कुछ नहीं पता ॥
कब टूट जाए रिश्तये-जां कुछ नहीं पता।
कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता..
चेहरे पे है सभी के शराफत का बांकपन ।
मुजरिम है कौन - कौन यहाँ कुछ नहीं पता ॥
सबके मकान फूस के हैं फिर भी सब हैं खुश ।
उटठेगा कब कहाँ से धुआं कुछ नहीं पता ॥
मंजिल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी, मगर ।
ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता ॥
ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया ।
छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता ॥
कल आसमान छूती थीं जिन की बलान्दियाँ ।
कब ख़ाक हो गये वो मकाँ कुछ नहीं पता ॥
सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक-नाम।
फिर क्यों है फिक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता ॥
शाखें शजर की, कल भी रहेंगी हरी -भरी।
कैसे करे कोई ये गुमाँ कुछ नहीं पता ॥