आज 25 फरवरी 2009 को युग-विमार्श ने अपनी यात्रा का एक वर्ष पूरा कर लिया. इस बीच 5872 पाठकों ने 14563 बार युग-विमर्श की रचनाओं और विचारों के साथ संपर्क स्थापित किया। यह एक संतोष-प्रद स्थिति है। देखा जाय तो यह पूरा वर्ष ऐसे पडावों से गुज़रा है जब हिंदी ब्लॉग जगत पर, विभिन्न स्थितियों से टकराते-जूझते देश की पृष्ठभूमि में, पर्याप्त कड़वाहटें व्यक्त हुई हैं। मानसिक तनाव की इस स्थिति से बाहर निकलकर अब कुछ ठंडी हवा महसूस की जा रही है। भावुकता के इस बहाव में युग विमर्श नहीं आया और उसने एक स्वस्थ वैचारिक धरातल पर खड़े रहने का प्रयास किया। इस एक वर्ष में युग विमर्श की 519 प्रविष्टियाँ इस तथ्य की पुष्टि करेंगी। संतोष का विषय यह है की जहाँ उर्दू-हिंदी ग़ज़लों ने अपनी लोकप्रियता बनायी, वहीँ भगवद गीता, इस्लाम की समझ, कबीर का सूफी दर्शन, प्रगतिशील आन्दोलन जैसे गंभीर विषयों से सम्बद्ध आलेख भी रुचिपूर्वक पढ़े गए। सूरदास के रूहानी नगमे और राम काव्य "अब किसे बनवास दोगे" को भी सराहा गया.
युग-विमर्श उन सभी पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया के धरातल पर सहमतियाँ असहमतियां व्यक्त कीं और कहीं कोई तल्खी नहीं आई. हाँ जाने-अनजाने में किसी ब्लॉग कर्मी को युग-विमर्श द्बारा की गयी टिप्पणियों से यदि ठेस पहुंची है तो हमें इसका खेद है. हम और भी सतर्क रहने का प्रयास करेंगे.