ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / ख़ुद से जो भी किए लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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रविवार, 1 फ़रवरी 2009

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.
दिल है मगमूम, कोई छीन ले, मुझ से, मुझको.
तेरे चहरे से, हुई हैं मेरी आँखें रौशन,
तेरी चौखट से मिले फ़िक्र के सांचे मुझको.
मेरे अश्कों में झलकते हैं लहू-रंग गुहर,
चाक कर दे कोई परदों को तो देखे मुझको.
अब न वो दर्द है सीने में, न अब है वो तबीब,
बोझ समझे न जहाँ, अब तो उठा ले मुझको.
जाने क्यों होता है हर लहज़ा ये एहसास मुझे,
दूर से जैसे कहीं कोई सदा दे मुझको.
देख ! बस नाम को बाक़ी है फ़क़त मेरा वुजूद,
मेरे हालात चुभो देते हैं नैज़े मुझको.
सामने बच्चों के रक्खीं नहीं क़द्रें अपनी,
रह गई दिल में तमन्ना कोई समझे मुझको.
कितने शमशीर-बकफ लम्हों से रहता हूँ घिरा,
क़त्ल कर दें न कहीं वक़्त के गुर्गे मुझको।

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