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रविवार, 22 फ़रवरी 2009

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा
यकीं करो मैं तुम्हारे बगैर जी लूँगा
खुशी मिली थी तो उसमें भी कुछ सुरूर न था
मिला है ग़म तो उसे भी खुशी-खुशी लूँगा
अंधेरे आते हैं, आने दो, ये भी हमदम हैं
ये दे सके तो मैं इनसे भी रोशनी लूँगा
पसंद आए तुम्हें जो भी रास्ता, चुन लो
मैं तुमसे कोई भी वादा न अब कभी लूँगा
मेरा ही शह्र मुझे अजनबी समझता है
मैं ये भी ज़ह्र मुहब्बत के साथ पी लूँगा

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