ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / कितनी मासूम सी आवाज़ है लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / कितनी मासूम सी आवाज़ है लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.
आबशारों सा है शफ़्फ़ाफ़, कोई अपना है.
ज़िन्दगी माहिए-बे-आब नहीं है फिर भी,
इस, ज़माने के समंदर में, बहोत खतरा है.
बे-ग़रज़ कोई, किसी से, कहीं, वाबस्ता नहीं,
एक का, दूसरे के साथ, अजब रिश्ता है.
हल इसे कर नहीं सकते हैं मुअम्मे की तरह,
मसअला ज़ीस्त का बे-इन्तेहा पेचीदा है.
चल पड़े जानिबे-मंजिल, तो हो कैसा भी सफर,
रहगुज़ारों में, कहीं बीच में, रुकना क्या है.
इसमें हर शै है तिलिस्मात की चादर ओढे,
गौर से देखिये, बे-मानी सी ये दुनिया है.
कब इस इंसान का हो जाय दरिन्दे का मिजाज,
कब फ़रिशतों सा लगे, किसने कभी सोचा है.
**************************

मासूम=पाप-मुक्त, लह्जा=स्वर, आबशारों= झरनों, शफ़्फ़ाफ़=उज्ज्वल/ धवल/स्वच्छ, माहिए-बे-आब=बिना पानी की मछली, वाबस्ता=जुड़ा हुआ, ज़ीस्त=ज़िन्दगी, पेचीदा=घुमावदार, रहगुज़ारों=रास्तों, तिलिस्मात=मायाजाल, बे-मानी=अर्थहीन, दरिन्दे=फाड़ खाने वाले पशु, मिज़ाज=स्वभाव.