सच तो ये है के हुए पल के जवाँ जन्नत में॥
अब भी मिल जायेंगे पैरों के निशाँ जन्नत में।
अपनी ख़िल्क़त से ही होते हैं फ़रिश्ते मासूम,
एक ही तर्ज़ पे जीते हैं वहाँ जन्नत में॥
मैं के इन्सान हू रखता हूं ज़मीनों का ख़मीर,
टिकते हैं साहिबे इदराक कहाँ जन्नत में॥
हमनशीनी है तेरी जन्नतो-दोज़ख से अलग,
कौन समझेगा वहाँ मेरी ज़ुबाँ जन्नत में॥
हूरो-ग़िल्मान बराबर तो नहीं हो सकते,
यानी है मामलए-सूदो-ज़ियाँ जन्नत में॥
तू यहाँ रहता है हर लमहा रगे-जाँ के क़रीब,
क्यों मैं तामीर करूं अपना मकाँ जन्नत में॥
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سچ تو یہ ہے کہ ہوۓ پل کے جواں جنت میں
اب بھی مل جائیں گے پیروں کے نشان جنت میں
اپنی خلقت ہی سے ہوتے ہیں فرشتے معصوم
ایک ہی طرز پہ جیتے ہیں وہاں جنت میں
میں کہ انسان ہوں رکھتا ہوں زمینوں کا خمیر
ٹکتے ہیں صاحب ادراک کہاں جنت میں
ہم نشینی ہے تری جنت و دوزخ سے الگ
کون سمجھے گا وہاں میری زباں جنت میں
حور و غلمان برابر تو نہیں ہو سکتے
یعنی ہے معاملہ سو د و زیاں جنت میں
تو یہاں رہتا ہے ہر لمحہ رگ جان کے قریب
کیوں میں تعمیر کروں اپنا مکاں جنت میں
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जन्नत=स्वर्ग । ख़िल्क़त=उत्पत्ति ।तर्ज़=ढंग ।ख़मीर=सत्त्व ।साहिबे-इदराक=समझ-बूझ वाले॥हमनशीनी=साथ उठना-बैठना ।हूरो-ग़िल्मान=सुन्दरियाँ और खूबसूरत लड़के । मामलए-सूदो-ज़ियाँ=घाटे और फ़ायदे मामला। रगे-जाँ=हृदय में जाने वाली रक्त की नली ।