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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं

नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं।
क्यों बदलना ये सियासत की फ़िज़ा चाहती हैं॥
अब तो अख़बार के सफ़हों से टपकता है लहू,
ख़ुन में डूबी इबारात फ़ना चाहती हैं॥
आ के शायर भी सरे बज़्म रचा करते हैं स्वाँग,
महफ़िलें आज सुख़नवर से अदा चाहती हैं॥
फ़िकरें ऐसी हैं के अंजाम से है बे-ख़बरी,
ख़्वाहिशें ऐसी के जीने का मज़ा चाहती हैं॥
सर उठाती हुई ख़ुशरंग नयी तहज़ीबें,
अपनी पहचान बहरहाल जुदा चाहतीहैं॥
वक़्त की धड़कनें कुछ और ही देती हैं पता,
बेवफ़ा हो के भी तस्दीक़े-वफ़ा चाहती हैं॥
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نکسلیت کی یہ خوں ریزیاں کیا چاہتی ہیں
کیوں بدلنا یہ سیاست کی فضاء چاھتی ہیں
اب تو اخبار کے صفحوں سے ٹپکتا ہے لہو
خون میں ڈوبی عبارات فنا چاہتی ہیں
آ کے شاعر بھی سر بزم رچا کرتے ہیں سوانگ
محفلیں آج سخنور سے ادا چاہتی ہیں
فکریں ایسی ہیں کہ انجام سے ہے بے خبری
خواہشیں ایسی کہ جینے کا مزا چاہتی ہیں
سر اٹھاتی ہوئی خوش رنگ نئی تہذیبیں
اپنی پہچان بہرحال جدا چاہتی ہیں
وقت کی دھڑکنیں کچھ اور ہی دیتی ہیں پتہ
بے وفا ہو کے بھی تصدیق وفا چاہتی ہیں
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