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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

हाफ़िज़ शीराज़ी की चार रुबाइयों का मंजूम तर्जुमा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मन बंदए-आंकसम कि शौके दारद.
बर गरदनि-ख़ुद, ज़ि-इश्क़ तौक़े दारद.
तू लज़्ज़ते-इश्को-आशिकी कै दानी,
इन बादा कसे खुर्द कि ज़ौक़े दारद. [1]


गुलाम उसका हूँ, जो, कोई शौक़ रखता हो.
मिज़ाजे-इश्क का गर्दन में तौक़ रखता हो.
तुझे पता नहीं कुछ इश्को-आशिकी का मज़ा,
ये मय वो पीता है जो इसका ज़ौक़ रखता हो.

नै दौलते-दुनिया बि-सितम मी अर्ज़द.
नै लज़्ज़ते-हस्ती बि-अलम मी अर्ज़द.
नै हफ़्त हज़ार सालि शादीए-जहाँ,
बा मिहनति-पंज रोज़ए-ग़म मी अर्ज़द. [2]


ज़ुल्म की क़ीमत कोई दौलत नहीं.
ग़म का बदला जीस्त की लज्ज़त नहीं,
खुशियाँ यकजा हों हजारों साल की,
पाँच दिन के ग़म की भी क़ीमत नहीं.


गोयंद कसानेके ज़ि मय पर्हेज़न्द.
जाँसां कि बिमीरंद चुनाँ बर्खीज़न्द
मा बा मयो-माश्हूक अज़ीनीम मदाम,
ता बू कि ज़ि-खाकि मा चुनाँ अंगीज़न्द.[3]


जो मय नहीं पीते वो कहा करते हैं,
मौत जिस हाल में हो, वैसे उठा करते हैं.
माशूक को मय के साथ रखता हूँ मैं,
इस तर्ह उठें हम भी, दुआ करते हैं.


शीरीं दहनाँ उह्द बिपायाँ न बुरंद.
साहिब-नज़रां ज़ि-आशिकी जाँ न बुरंद.
माशूक चू बर मुरादों-राय तू बूद,
नामे-तू मियानि-इश्क्बाजाँ न बुरंद. [4]


शीरीं-लब जितने हैं, वादा नहीं पूरा करते.
जो नज़र रखते हैं, जानें हैं लुटाया करते.
मक्सदो-राय में जब आशिको-माशूक हों एक,
इश्क्बाजों में नहीं नाम गिनाया करते.

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