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शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः 3 ]

[ 15 ]
तुम्हरी कृपा गोपाल गुसाईं, हौं अपने अज्ञान न जानत.
उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरन उलूक न मानत..
सब सुख निधि हरिनाम महा-मनि सो पाएहुं नाहीं पहिचानत..
परम कुबुद्धि, तुच्छ, रस-लोभी, कौडी लगि मग की रज छानत..
सिव कौ धन, संतनि कौ सरबस, महिमा बेद पुरान बखानत..
इते मान यह 'सूर' महा सठ, हरि नग बदलि बिषय बिष आनत..


ज़ुल्मते-जिहालत में, पड़ गया हूँ मैं ऐसा.
आपकी नवाज़िश भी, जानता नहीं आक़ा.
ऐब अपनी आंखों का, देखतीं नहीं आँखें,
उल्लुओं ने कब माना, आफ़ताब का जलवा.
पा के क़ीमती हीरा, नामे-रब की दौलत का,
है ये मेरी कमज़र्फी, खुश नहीं मैं हो पाया.
हिरसे-लज़्ज़ते-दुनिया, मेरी बेवकूफ़ी थी,
ख़ाक रास्तों की मैं, यूँ न छानता फिरता.
शिव की तुम ही दौलत हो, कायनात संतों की,
वेद में, पुरानों में, अज़मातों का है चर्चा.
'सूर' की है नादानी, श्याम के नगीने को,
देके, उसके बदले में, ज़हरे-ग़म उठा लाया.
[ 16 ]
अब कैसें पैयत सुख मांगे.
जैसोई बोइयै तैसोई लुनिऐ, करमन भोग अभागे..
तीरथ ब्रत कछुवै नहिं कीन्हीं, दान दियौ नहिं जागे..
पछिले कर्म सम्हारत नाहीं, करत नहीं कछु आगे..
बोवत बबुर, दाख फल चाहत, जोवत है फल लागे..
'सूरदास' तुम राम न भजि कै, फिरत काल संग लागे..


मांगे से अब मिलेगी तुझे किस तरह खुशी.
आमाल का नतीजा है इन्सां की जिंदगी..
बोया है तूने जैसा भी काटेगा तू वही
रोज़ा, जियारत और सखावत न की कभी
करना न चाहा तूने कोई काम मज़हबी.
माज़ी में जो भी फ़ेल किए उसका ग़म नहीं
और आखिरत की फ़िक्र भी तुझ को बहम नहीं.
बोटा है तू बबूल, मुनक्का है चाहता.
करता है इन्तेज़ार कि फल का मिले मज़ा
कहते हैं 'सूर' छोड़ के तू राम का भजन
फिरता है अपनी मौत लिए साथ हर घड़ी.
[ 17 ]
मोसौं बात सकुच तजि कहिये.
कट ब्रीड़त कोऊ और बतावौ, ताहीके ह्वै रहिये..
कैधौं तुम पावन प्रभु नाहीं, कै कछु मो मैं झोली.
तौ हौं अपनी फेरि सुधारौं, बचन एक जौ बोलौ..
तीनों पन में ओर निबाहे, इहै स्वांग कौं काछे..
'सूरदास' कौं यहै बडौ दुःख, परत सबनि के पाछे..


तकल्लुफ तर्क कर के मुझ से कह दो साफ़ लफ्ज़ों में.
खुदाया मुझको भटकाओ न इस सूरत से राहों में.
अगर है और कोई क़ादिरे-मुतलक़ तो बतला दो.
उसी का हो रहूँगा, मुझ को अब नाहक़ न धोका दो.
कहीं कुछ नुक्स है या तो तुम्हारी शाने-रहमत में.
या फिर कोई कमी है मेरे अंदाजे-मुहब्बत में..
फ़क़त इक बार कह दो, हैं अगर कोताहियाँ मुझ में.
सुधारूँगा मैं ख़ुद को, हैं अभी ये खूबियाँ मुझ में..
गुज़ारी मैं ने सारी उम्र उल्फत को निभाने में.
तुम्हारा हूँ, ये दम भरता रहा हर दम ज़माने में..
मुझे है 'सूर' गम इस बात का ,मैं रह गया पीछे..
जो थे अग्यार, उन सब पर करम तुमने किया पहले..
[ 18 ]
सो कहा जू मैं न कियौ सोई चित्त धरिहौ.
पतित-पावन-बिरद सांच कौन भांति करिहौ..
जब मैं जग जनम लियौ, जीव नाम पायौ.
तब तीन छुटि औगुन इक नाम न कहि आयौ..
साधु-निंदक, स्वाद-लम्पट, कपटी, गुरु-द्रोही,
जेते अपराध जगत, लागत सब मोही..
गृह-गृह, प्रति द्वार फिरयौ, तुमकौ प्रभु छांडे ..
अंध अवध टेकि चलै, क्यों न पडै गाडे..
सुकृति-सूचि-सेवकजन, काहि न जिय भावै.
प्रभु की प्रभुता यहै, जु दीन सरन पावै..
कमल-नैन, करुनामय, सकल-अंतरजामी..
बिनय कहा करै 'सूर', कूर, कुटिल, कामी..


कौन सी ऐसी बुराई है जो मैं ने की नहीं
इस ज़माने में तो मुझ जैसा कोई पापी नहीं
मेरी बाद-आमालियों को दिल में रक्खोगे अगर.
फिर करीमी की सदाक़त कैसे होगी मोतबर..
जबसे मैं पैदा हुआ ज़ीरूह कहलाने लगा
ले न पाया, छोड़कर बदकारियाँ, नामे-खुदा..
नेक बन्दों की बुराई कर के खुश होता रहा..
लाज्ज़ते-दुनिया की खातिर, सिर्फ़ आवारा फिरा..
दिल से चाहा कुछ, जुबां से कुछ, ये थी आदत मेरी..
मुर्शिदों से दुश्मनी रखना ही थी फितरत मेरी..
सारी दुनिया के जराइम से बनी खसलत मेरी..
छोड़कर तुमको, फिरा मैं छानता दर-दर की ख़ाक..
अंधे का रहबर हो अंधा, होंगे फिर दोनों हलाक..
बंदगाने-खुश-अमल, अच्छे किसे लगते नहीं..
है कमाले-कुदरते-खालिक इसी से बिल-यकीं..
रखने दे नाचीज़ को भी अपनी चौखट पर जबीं..
दिल की बातें जनता है, तू है रहमानो-बसीर..
अर्ज़ तुझसे क्या करे, है 'सूर' ज़ुल्मत का असीर..
[ 19 ]
अब मेरी राखौ लाज मुरारी..
संकट मैं इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी..
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी..
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ फिर झारी..
नाचन कूदन मृगनी लागी, चरन कमल पर वारी..
'सूर' स्याम प्रभु अविगत लीला, आपुहिं आप संवारी..


रख लीजिये अब आप भरम इल्तेफात का ..
कुछ कम न था मसाइबे-दुनिया का सिलसिला ..
मुश्किल नई है आन पडी, वा मुसीबता..
वहशी शिकारियों से घिरा है मेरा हिरन
सौगंद उसकी है तुम्हें या रब्बे-ज़ुल्मनन
कुछ और जानती नहीं बस तुम हो ध्यान में..
आई हूँ आका सिर्फ़ तुम्हारी अमान में..
मुश्किलकुशा के फैज़ से उलटी हवा चली ..
ऐसा हुआ कि फैल गई बन में खलबली..
जंगल तवह्हुमात का इक पल में जल गया..
सगहाए-हिर्स भागे, बुरा वक़्त ताल गया..
हिरनी खुशी से होके मगन नाचने लगी..
चरनों में आई श्याम के, आसूदगी मिली..
वाकिफ नहीं है 'सूर' कोई मोजजात से..
आका करिश्मे करते हैं ख़ुद अपनी ज़ात से..
[ 20 ]
जग मैं जीवत ही को नातौ.
मन बिछुरे तन छार होइगौ, कोऊ न बात पुछातौ..
मैं मेरी कबहूँ नहिं कीजै, कीजै पंच सुहातौ..
बिषयासक्त रहत निसि बासर, सुख सियरौ, दुःख तातौ..
सांच झूठ करि माया जोरी, आपुन रूखौ खातौ..
'सूरदास' कछु थिर न रहैगो, जो आयो सो जातौ..


रिश्ते जहाँ में सारे इसी जिंदगी के हैं.
जब रूह होगी तन से जुदा, जिस्म होगा ख़ाक
पूछेगा खैरियत न कोई फिर, बी-इन्हेमाक .
मैं और मेरी का, न कभी ज़िक्र कीजिये.
पंचों को हो पसंद जो वो फ़िक्र कीजिये..
दुनिया की लिपटी-चुप्टी में रहते हैं रोजो-शब..
दुःख में फ़सुर्दा, सुख में मगन हैं यहाँ पे सब
सच को बदल के झूठ में जोड़ी है मिलकियत.
ख़ुद रूख सूखा खा के मरोड़ी है मिलकियत.
कायम रहेगी 'सूर' न कोई भी शय यहाँ.
आया है जो भी जायेगा वो, छोड़ कर जहाँ..
[ 21 ]
सबै दिन एकै से नहिं जात.
सुमिरन ध्यान कियो करि हरि कौ, जब लगि तन कुसलात..
कबहूँ कमला चपला पाके, टेढौ टेढौ जात..
कबहुँक मग-मग धूरि टटोरत, भोजन को बिलखात..
या देही के गरब बावरो, तदपि फिरत इतरात..
बाद बिबाद सबै दिन बीते, खेलत ही अरु खात..
हौं बड़ हौं बड़, बहुत कहावत, सूधे कहत न बात..
योग न युक्ति, ध्यान नहिं पूजा, बृद्ध भये अकुलात..
बालपन खेलत ही खोये, तरुनापन अलसात.
'सूरदास' अवसर के बीते, रहिहौ पुनि पछतात..


नहीं होते सभी दिन एक जैसे.
हरी का ज़िक्र कर जबतक बदन में जान बाक़ी है.
कभी दौलत को पाकर आदमी इतरा के चलता है..
कभी राहों की खाको-गर्द को है छानता फिरता..
बिलखता भूक से है, पर तरस जाता है खाने को.
तुझे है नाज़ फिर भी जिसमे-फ़ानी पर ऐ दीवाने.
गुज़र जाते हैं तेरे दिन बहस में, खेलते खाते.
अना में गर्क है, सीधी तरह से बातें नहीं करता..
न कोई जोग, नै करतब, न कोई ध्यान नै पूजा..
बुढापा आ गया टो दिल में क्यों बेचैन होता है.
लड़कपन खेल कर खोया, जवानी बे-अमल काटी..
निकल जाने पे मौक़ा 'सूर' रह जायेगा अपने हाथ मल के॥
*************************क्रमशः