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शनिवार, 6 सितंबर 2008

ये पायल की झंकार / सुनील वाजपेयी

ये पायल की झंकार खरीदोगे ?
या तन का मधुमय सार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो मेरी काया के दीवानों,
माटी का ये संसार खरीदोगे ?
भूखे पेटों का प्यार खरीदोगे ?

जबसे मुझमें सावनी घटा लहराई
गलियों हाटों में खूब है मस्ती छाई
भूखी नज़रों के हवस भरे मयखानों
झूठे अधरों के तार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो सौदागरों कुछ तो बोलो
मेरे तन का श्रृंगार खरीदोगे ?

वीणा पायल से झंकृत पतझर सावन
खोया-खोया सा लगता सारा आँगन
इनपर सब कुछ बेमोल लुटाने वालो
सम्मान बेचकर हार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो मधु प्यास बुझाने वालो
प्यासों नयनों के वार खरीदोगे ?

अल्हड़पन में हो गया अपावन यौवन
जीवन भर को लुट गया कमाई का धन
खोखले बदन का चषक उठाने वालो
विष में डूबा अंगार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो बदलाव के दावेदारों
ये ढलती सी मीनार खरीदोगे ?

नारी हूँ क्या पद्मिनी नहीं बन सकती
तुम पुरुषों की संगिनी नहीं बन सकती
पौरुष की पद मर्दिता बताने वालो
मेरे अन्तर का ज्वार खरीदोगे ?
बोलो-बोलो सर्वस्व लुटाने वालो
मेरा चिर अंगीकार खरीदोगे ?
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