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रविवार, 2 मार्च 2008

कुर्सीनमा : मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सन्दर्भ में

क्या खूब दर्सगाहे- अलीगढ है दोस्तो।
बातें बनाओ, नाम कमाओ, मज़े करो॥
पढने-पढाने का है तुम्हें गर ज़रा भी शौक़।
समझो गले में पड़ गया गुमनामियों का तौक॥
कुर्सी से बढ़के कोई मुअल्लिम नहीं यहाँ।
होती हैं हर ज़माने में मखदूम कुर्सियाँ॥
अल्लामा सिर्फ़ वो है जो कुर्सी नशीन है।
कुर्सी न हो तो इल्मो-अमल बे-यकीन है॥
वैसे तो कुर्सियों की है भरमार हर तरफ़।
लेकिन हरेक कुर्सी को हासिल नहीं शरफ॥
कुर्सी के मानी होते हैं कुदरत वो इख्तियार।
जाहो-हषम है कुर्सी से, कुर्सी से इक्तिदार॥
कुर्सी बहोत अहम् है यहाँ के निजाम में।
कुर्सी हटे तो सुबहें बदल जाएं शाम में॥
कुर्सी में वो कशिश है कि सबको लगाव है।
कुर्सी से आदमी का यहाँ मोल-भाव है॥
कुर्सी ही सदर-शोबा है कुर्सी ही डीन है।
कुर्सी असातज़ा के लिए महजबीन है॥
कुर्सी कभी प्रोवोस्ट कभी वार्डन का नाम।
यानी ज़रूरतों के मुताबिक गबन का नाम॥
कुर्सी ही जोड़-तोड़ से बनती है प्राक्टर।
कुर्सी की मुट्ठियों में है तकसीमे खैरोशर॥
कुर्सी रजिस्ट्रार भी ऍफ़ ओ भी है जनाब।
कुर्सी अगर न खुश हो तो है ज़िंदगी अजाब॥
कुर्सी ही तालिबिल्मों को देती है दाखले।
कुर्सी के इक इशारे पे होते हैं फैसले॥
दानिशकदे की सारी निजामत इसी से है।
कितने ही खानदानों की बरकत इसी से है॥
कुर्सी हो बेलगाम तो आजाय ज़लज़ला।
कुर्सी से दुश्मनी का करे कौन हौसला॥
अंदाज़ कज्रवी हो तो अफ़ज़ल हैं कुर्सियाँ।
जिनमें शराफतें हैं वो बेकल हैं कुर्सियाँ॥
हक माँगना है कुर्सी के नजदीक सरकशी।
कानून सिर्फ़ कुर्सी के होंटों की है हँसी॥
फन्ने मुसाहिबी में जिसे कुछ कमाल हो।
कुर्सी के साथ मिलके बहोत मालामाल हो॥
कुर्सी में हो सडांध तो खुशबू कहो उसे।
घपला नज़र में आए तो जादू कहो उसे॥
कुर्सी का दबदबा हो तो जीने का है मज़ा।
कुर्सी से मेल-जोल में है सबका फायदा..
इल्मो-अदब की बात सरासर फुजूल है।
कुर्सी न हो तो आदमी सहरा की धूल है॥
कुर्सी परस्त आज हैं पीरोजवां सभी।
सबकी निगाह कुर्सी झपटने में है लगी॥
कुर्सी मिले तो आदमी मसरूर क्यों न हो।
अल्लामियां से फिर वो बहोत दूर क्यों न हो॥
कुर्सी के साथ जाते-खुदा का वजूद है।
कुर्सी के हक में आज सलामो-दरूद है॥
टिपण्णी : यह नज्म जैदी जाफर रज़ा की काव्य-रचना अलीगनामा से ली गई है.