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शुक्रवार, 16 मई 2008

फ़िराक गोरखपूरी / प्रो. शैलेश जैदी

छोटा सा नाम रघुपति सहाय और अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी हिन्दी भाषाओं की योग्यता ऐसी, कि उनसे जो भी मिला दांतों तले उंगली दबा कर रह गया. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के शिक्षक रहे और प्रोफेसर न होते हुए भी प्रोफेसरों से कहीं अधिक योग्य माने गए. वग्विदग्धता में बे-जोड़ और उर्दू शायरी में लाजवाब. गजलों में मीर तकी मीर की विरासत की भरपूर अंगड़ाई, रूबाइयों में विद्यापति की मिठास, कोमलता और रूमानियत का बांकपन.
मीर की शायरी ने तो फिराक पर ऐसा जादू किया था कि वह उसके आस्वादन और अनुकरण को अपने लिए गर्व का विषय समझते थे. स्वयं उन्हीं से सुनिए- 'यादे अइयाम की पुर्वाइयो, धीमे-धीमे / मीर की कोई ग़ज़ल गाओ के कुछ रात कटे.' या फिर ये शेर - 'फिराक शेर वो पढ़ना असर में डूबे हुए / के याद मीर के अंदाज़ की दिला देना.' इतना ही नहीं अपनी ग़ज़लों में मीर की ध्वनि सुनकर चुटकियाँ लेने में भी उन्हें मज़ा आता है- 'सदके फिराक एजाज़े-सुखन के, कैसे अड़ाई ये आवाज़ / इन ग़ज़लों के परदे में तो मीर की ग़ज़लें बोले हैं.
अपने समकालीनों में फिराक ने जोश मलीहाबादी के अतिरिक्त किसी को भी अपना समकक्ष स्वीकार नहीं किया - 'मेरा हरीफ़ सिवा जोश के नहीं कोई / बहोत हैं यूं तो फ़ने-शायरी के दावेदार.' मीर की ही भांति फिराक को अपनी काव्य-प्रतिभा और उसके श्रेष्ठ तथा उच्च-स्तरीय होने का पूरा विश्वास था. मीर की युवावस्था का एक शेर देखिए- 'खोल कर दीवान मेरा देख कुदरत मुद्दई / गरचे हूँ मैं नौजवाँ पर शायरों का पीर हूँ.' या फिर इस शेर में अपने अशआर की जो प्रशस्ति की गई है उसपर ध्यान दीजिए - 'रेखता खूब ही कहता है जो इन्साफ करें / चाहिए, अहले-सुखन मीर को उस्ताद करें.' फिराक अपनी शायरी के सन्दर्भ में क्या कहते हैं वह भी सुनिए - 'हमारे साजे-सुखन में वो लय भी पिन्हाँ है / करे तरन्नुमे-गुल्कार को जो आहनकार.' या फिर एक दूसरे शेर में यह दावा कि भविष्य में आने वाले शायरों में फिराक का रंग नापैद होगा- 'मेरे जीते जी सुन लो, साजे-ग़ज़ल के ये नगमे / और भी शायर आयेंगे लेकिन, कहाँ फिराक को पाओगे.' जोश मलीहाबादी ने फिराक के सम्बन्ध में ठीक ही कहा था- 'जो शख्स तस्लीम नहीं करता कि फिराक की अहम् शख्सीयत हिन्दोस्तान के माथे का टीका, उर्दू ज़बान की आबरू और शाइरी की मांग का सिंदूर है, वो निरा घामड है.' कदाचित इसी लिए फिराक उर्दू शायरी में अपनी आवाज़ को अपनी शताब्दी की आवाज़ मानते थे- 'हर उक्दए-तक्दीरे-जहाँ खोल रही है / हाँ ध्यान से सुनना ये सदी बोल रही है.'
अब अधिक विस्तार में न जाकर फिराक की गजलों से कुछ अशआर यहाँ उद्धृत किए जाते हैं. इन के प्रकाश में सहज ही निर्णय लिया जा सकता है कि फिराक की शायरी किस स्तर की है –
दास्ताँ इश्क की दुहरा गई तारों भरी रात / कितनी यादों के चेराग आज जले और बुझे.
कहाँका वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है, / तेरे दम भर के आ जाने को हम भी क्या समझते हैं.
छिड़ते ही ग़ज़ल बढ़ते चले रात के साए / आवाज़ मेरी गेसुए-शब खोल रही है.
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त / तेरे जमाल की दोशीजगी निखर आई.
क़ैद क्या रिहाई क्या , है हमीं में सब आलम / रुक गए तो जिन्दाँ है, चल पड़े बियाबां है.
कफे-पा से ता सरे-नाजनीं, कई आँखें खुलती-झपकती हैं / के तमाम मस्कने-आहुआं, है दमे-खुमार तेरा बदन.
हुस्न सर-ता-पा तमन्ना, इश्क सर-ता-पा गुरूर / इसका अंदाजा नियाजो-नाज़ से होता नहीं.
देख वो टूट चला ख्वाबे-गराँ माजी का / करवटें लेती है तारीख बदलता है समाज.
तुझे तो हाथ लगाया है बारहा लेकिन / तेरे ख़याल को छूते हुए मैं डरता हूँ.
जिस्म उसका न पूछिए क्या है / ऐसी नरमी तो रूह में भी नहीं.
नफ्स-परस्ती पाक मुहब्बत बन जाती है जब कोई / वस्ल की जिस्मानी लज्ज़त से रूहानी कैफीयत ले.
हर साँस कोई महकी हुई नर्म सी लय है / लहराता हुआ जिस्म है या साज़ है लर्जां
फिराक के उपर्युक्त शेरो को पढने के बाद कौन कह सकता है कि अपनी शायरी के सम्बन्ध में उनका यह दावा ग़लत था -ख़त्म है मुझपे गज़ल्गोईए दौरे-हाजिर / देने वाले ने वो अंदाजे-सुखन मुझ को दिया
फिराक की रूबाइयों में परंपरागत भारतीय उपमानों और बिम्बों का प्रयोग उनके उर्दू मिजाज को बला का लावण्यमय बना देता है और उन्हें इतना लचीला कर देता है कि उसका शब्द-शब्द नृत्य करता प्रतीत होता है. पनघट से गागरें भरकर ग्रामीण महिलाएं किस प्रकार निकलती हैं देखिए -
पनघट में गगरिया छलकने का ये रंग / पानी हच्कोले ले-ले के भरता है तरंग.
काँधों पे, सरों पे, दोनों बांहों में कलस / मद अँखडियों में सीनों में भरपूर उमंग

गाँव की महिला दिन भर की थकान के बाद घर लौटने पर पति को ज्वर-ग्रस्त पाकर जिस प्रेम से उसके माथे पर हाथ रखती है उसका प्रभाव द्रष्टव्य है -
प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती पलक / बैठी सरहाने,मांद मुखड़े की दमक
जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ / पड़ जाती है बीमार की आँख में ठंडक

नारी के रूप-सौन्दर्य को जितनी बारीकी से फिराक ने देखा है समकालीन कविता में उसका अन्यत्र कोई उदाहरण नहीं मिलता. शरीर के हाव-भाव में पौराणिक संदर्भों का इन्द्रधनुषी रंग भरने की कला केवल फिराक में थी-
रश्के-दिले-कैकई का फितना है बदन / सीता के बिरह का कोई शोला है बदन
राधा की निगाह का छलावा है कोई / या कृशन की बांसुरी का लहरा है बदन

गंगा वो बदन के जिसमें सूरज भी नहाए / जमुना बालों की, तान बंसी की उडाए
संगम वो कमर का आँख ओझल लहराए / तहे-आब सरस्वती की धारा बल खाए

सूरदास को वात्सल्य रस का अद्भुत कवि माना गया है. फिराक के प्रसंग मे आलोचकों ने विद्यापति की चर्चा तो की है किंतु सूर का कोई उल्लेख नहीं हुआ है. फिराक की वात्सल्य रस की रुबाइयाँ पढ़कर सहज ही यह सोंचना पड़ता है कि उन्होंने सूर को बहुत गहराई से पढ़ा था. कुछ रुबाइयाँ देखिए-
किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी / हिलती है सुडौल बांह गोरी गोरी
माथे पे सुहाग, आंखों में रस, हाथों में / बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी

आँगन में ठुनक रहा है जिदियाया है / बालक तो हटी चाँद पे ललचाया है
दरपन उसे देके कह रही है ये माँ / देख आईने में चाँद उतर आया है.

नहला के छलके-छलके निर्मल जल से / उलझे हुए गेसुओं में कंघी कर के
किस प्यार से देखता है बच्चा माँ को / जब घुटनों में ले के है पिन्हाती कपड़े

ममत्व का प्रसंग अधूरा रह जाएगा यदि फिराक की नज्मों की बात छोड़ दी जाय. वैसे तो फिराक की अनेक ऐसी नज्में हैं जिन पर विस्तार से लिखा जा सकता है. किंतु यहाँ केवल जुगनू शीर्षक नज्म के ही कुछ अंश दिए जा रहे हैं. इस कविता में फिराक का दर्द शब्दों के माध्यम से फूट पड़ा है -
मेरी हयात ने देखी है बीस बरसातें / मेरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी
वो माँ के शक्ल भी जिस माँ की मैं न देख सका / जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न वो माँ
मैं वो पिसर हूँ जो समझा नहीं के माँ क्या है / मुझे खिलाइयों और दाइयों ने पाला था.

इन परिस्थितियों में फिराक के मन में जुगनू बनने की इच्छा जागती है. इस इच्छा में भी कितना भोलापन है देखिए -
यतीम दिल को मेरे ये ख़याल होता था / ये शाम मुझको बना देती काश एक जुगनू
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता रहूँ / कहाँ कहाँ वो बिचारी भटक रही होगी
ये सोच कर मेरी हालत अजीब हो जाती / पलक की ओट में जुगनू चमकने लगते थे
कभी कभी तो मेरी हिचकियाँ सी बंध जातीं / के माँ के पास किसी तरह मैं पहोंच जाऊं.

माँ की इस कल्पना में अनाथ फिराक ने किसी को शरीक नहीं किया. अकेले ही अकेले माँ से दूरी का अहसास परवरिश पाता रहा.
वो माँ के जिसकी मुहब्बत के फूल चुन न सका / वो माँ मैं जिस की मुहब्बत के बोल सुन न सका
वो माँ के भेंच के जिसको कभी मैं सो न सका / मैं जिसके आंचलों में मुंह छुपा के रो न सका
किसी से घर में न कहता था अपने दिल का भेद / हरेक से दूर अकेला उदास रहता था.

फिराक की यह नज्म पर्याप्त लम्बी है. किंतु इसे पढ़ते हुए इसके लंबे होने का अहसास तक नहीं होता.अंत में फिराक की दो-एक रोचक बातें करके लेख समाप्त करता हूँ. कानपूर के एक मुशायरे में फिराक के पढ़ लेने के बाद एक शायर को आमंत्रित किया गया. कवि महोदय ने संकोचवश कहा- फिराक साहब जैसे बुजुर्ग शायर के बाद अब मेरे पढने का क्या महल है ? फिराक साहब खामोश नहीं रहे . तत्काल यह वाक्य चिपका दिया- मियाँ जब तुम मेरे बाद पैदा हो सकते हो तो मेरे बाद शेर भी पढ़ सकते हो.'ओबरा मिर्जापुर जाते हुए रास्ते में जीप का पहिया मिटटी में धंस गया. आस-पास जंगल और सन्नाटा. अचानक लाठी कंधे पर रखे एक आदमी आता दिखाई दिया. उसने पूछा क्या बात है , मैं चौकीदार हूँ. समस्या बताई गई . लाठी पहिये के नीचे जमाकर उसने ज़ोर लगाया.पहिया बाहर आ गया. फिराक साहब ने जेब से निकालकर उसे दस रूपए दिए. साथियों ने आश्चर्य किया. बोले इस जंगल में शेर-चीता या डाकू आकर जो हाल करते वो भी तो सोचिए. दस रूपए में इतने लोगों कि ज़िंदगी महंगी नहीं है.
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