मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

न जाने क्यों तुम्हारी दोस्ती पूरी नहीं मिलती

न जाने क्यों तुम्हारी दोस्ती पूरी नहीं मिलती ।
तुम्हारे साथ रह कर भी ख़ुशी पूरी नहीं मिलती॥

बहोत से काम ऐसे हैं जिन्हें हम कर नहीं पाते,
हमें क्यों हस्बे-ख़्वाहिश ज़िन्दगी पूरी नहीं मिलती॥

जुनूं साज़ी के दहशत-गर्द मिल्ली कारखानों में,
किसी मज़दूर को उजरत कभी पूरी नहीं मिलती॥

हयाते-नौए-इन्साँ में हैं तेरी रूह के जलवे,
मगर हर एक को ये रोशनी पूरी नहीं मिलती॥

ख़ुदा है ख़ानए-काबा में तो फिर ला-मकाँ क्यों है,
ख़बर क्यों हम को बैतुल्लाह की पूरी नहीं मिलती॥
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1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

इस गज़ल पर मैं कमेन्ट करूँ इतनी विसात नहीं है मगर बार बार पढ कर भी मन नहीं भरा लाजवाब शुभकामनायें