गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥

हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥

निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥

मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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2 टिप्‍पणियां:

Rajeysha ने कहा…

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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खूब आजादी मि‍ली थी, जमाने से हमें लेकि‍न

अंजामों की फि‍क्र में रखी, बंद जुबां अपनी

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'मेरा ही सर था जो…'
'हवा में उड़ती फिरी…'
क्या बात है! बहुत ख़ूब!