मंगलवार, 16 जून 2009

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.
हम अपना घर इसी सूरत सजाते रहते थे.

हरेक गाम पे ये ज़िन्दगी थी ज़ेरो-ज़बर,
तगैयुरात हमें आज़माते रहते थे.

वो चाहते थे भरम हो किसी की आहट का,
हवा के झोंके थे, परदे हिलाते रहते थे.

तअल्लुकात न थे, रस्मो-राह फिर भी थी,
तसव्वुरात में हम आते-जाते रहते थे.

ये बात सच है के हम खस्ता-हाल थे, लेकिन,
गिरे-पड़ों को हमेशा उठाते रहते थे.

न देख पाये कभी भी किसी की तश्ना-लबी,
मयस्सर आब था जितना पिलाते रहते थे.

ये जानते हुए इम्काने-रौशनी कम है,
हवा की ज़द में भी शमएँ जलाते रहते थे.
**********************

कोई टिप्पणी नहीं: