सोमवार, 15 जून 2009

अबतक साथ निभाया है तो चन्द दिनों की ज़हमत और.
मंज़िल साफ़ नज़र आती है, थोडी सी बस हिम्मत और.

साग़रो-सहबा की सरगोशी से बिल्कुल बे-पर्वा थे,
ख्वाब सजा लेते थे बैठे-बैठे थी वो ताक़त और.

पेड़ों का झुरमुट था, झील का नीला-नीला पानी था,
आँखों की कश्ती में सैर सपाटों की थी लज्ज़त और.

कितने ही औसाफे-हमीदा देख रहे थे हम में लोग,
किसको पता था फूल खिलाएगी तदबीरे-मशीयत और.

अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.

कासए-सर में भर के शराबे-इश्क़ पियो तो बात बने,
मुह्र-बलब रह जाए शरीअत, देख के रंगे तरीक़त और.
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साग़रो-सहबा =प्याला और मदिरा, सरगोशी = कानाफूसी, औसाफे-हमीदा = सत्व-गुण, तदबीरे-मशीयत = दैव-शक्ति के प्रबंध, ज़ात = व्यक्तित्व, वुजूद = अस्तित्व, कास'ए सर = सर का प्याला, मुह्र-बलब = मौन, शरीअत =इस्लामी धर्म-संहिता, तरीक़त = ब्रह्म-ज्ञान,

1 टिप्पणी:

निर्मला कपिला ने कहा…

अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.
यूँ टो पूरी गज़ल लाजवाब है मगर इस अश-ार ने मन को छू लिया आभार्