बुधवार, 24 जून 2009

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.
दश्ते-तहय्युरात में तारीकियाँ नहीं.

मैं खुद से हमकलाम रहूँ कितनी देर तक,
महफ़िल में कोई शख्स मेरा हमज़ुबां नहीं.

महदूद होके रह गया मैं अपनी ज़ात में,
क्या शिकवा ज़िन्दगी का अगर जाविदाँ नहीं.

समझाऊं कैसे सोज़िशे-दिल की मैं कैफ़ियत,
ये आग इस तरह की है जिसमें धुआँ नहीं.

बेहतर तअल्लुक़ात हुए हैं कुछ इन दिनों,
पहले की तर्ह मुझ पे वो ना-मेहरबां नहीं.

माना के खस्ताहाली में गुज़री है ज़िन्दगी,
लेकिन कभी किसी पे था बारे-गरां नहीं.

उफ़ क्या तपिश है धूप में शिद्दत बला की है,
ज़िन्दा हैं, गो सरों पे कोई सायबाँ नहीं.
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