अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.
आग तन-मन में लगी थी भुन रही थी दोपहर.
हो चुकी है अब ये धरती और सूरज के करीब,
बस इसी चिंता में पागल सी हुयी थी दोपहर.
बर्फ ही पिघले हिमालय से तो कुछ संतोष हो,
होके बेकल मन-ही-मन में सोचती थी दोपहर.
आ गयी नीचे बहोत नदियों के पानी की सतह,
प्यास से बेचैन कर्मों की जली थी दोपहर.
लेप चन्दन का कहीं से आके कर जाती हवा,
हर दिशा में याचना करती फिरी थी दोपहर.
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शुक्रवार, 26 जून 2009
अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.
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3 टिप्पणियां:
आपकी यह रचना मुझे बहुत अच्छी लगी .. धन्यवाद।
अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.
bahut khoob. manvikaran ka naya aayam.
BAHUT HI BADHIYA LAGI AAPAKI SHER ......EK EK PANKTIYAN BHAW SE PARIPURAN HAI
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