रविवार, 21 जून 2009

इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.

इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.
शऊरो-फ़िक्र को खुद पर यकीं नहीं होता.

असर-पज़ीर न होगा वो ज़लज़ले की तरह,
जो इन्क़लाब के ज़ेरे-ज़मीं नहीं होता.

हमारी वज्ह से तख्लीक़े-कायनात हुई,
न होते हम तो कोई ज़ेबो-जीं नहीं होता.

अजब तमाशा है, कहते हैं ला-मकाँ उसको,
वो कौन दिल है जहां वो मकीं नहीं होता.

रुमूज़े-इश्क़ को महफूज़ रखना लाज़िम है,
जमाले-हुस्न वगरना क़रीं नहीं होता.

वही तो है जो नज़र में समाया रहता है,
सिवाय उसके कोई दिल-नशीं नहीं होता.

तरक़्क़ियाँ न कभी आयीं उसके हिस्से में,
सियासतों में जो बारीक-बीं नहीं होता.

***********************
इबारत = अनुलेख, तसलसुल =तारतम्य, शुऊरो-फ़िक्र = विवेक एवं विचार, असर-पज़ीर = प्रभावित, ज़लज़ला = भूकंप, ज़ेरे-ज़मीं = भूमिगत, तख्लीक़े-कायनात = संसार की सृष्टि, ज़ेबो-जीं = सज्जा, लामकां = वह जो आवास से मुक्त हो, मकीं = आवासित, रुमूज़े-इश्क़ = प्रेम के रहस्य, महफूज़ = सुरक्षित, लाज़िम = अनिवार्य, जमाले-हुस्न = रूप-सौन्दर्य, वगरना = अन्यथा, क़रीं = निकट, दिलनशीं = हृदयस्थ, बारीक-बीं = सूक्ष्म-दर्शी.

कोई टिप्पणी नहीं: