बुधवार, 27 अगस्त 2008

दर्द का सूरज / अख्तर लखनवी

अब दर्द का सूरज कभी ढलता ही नहीं है।
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
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2 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
बेहतरीन...लाजवाब शेर...
नीरज

aarsee ने कहा…

क्या बात है
अब समझ में आया गज़ल की खूबसूरती क्या होती है।