बुधवार, 5 नवंबर 2008

अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य / पुष्प : 1 ]

पुष्प – 1 : सरयू के इर्द-गिर्द

(एक)

वह नदी
जो उस भूखण्ड को सींचती थी कभी
आज भी बहती है, उसी तरह
वैसे ही.
पर उसके ललाट की रेखाएँ
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती,
दिशा-शून्य आकृतियों को
लगती हैं आज कुछ अटपटी,
अजनबी.
तट की तहों में दबी संस्कृति
पीती रही है निरन्तर
नदी का नैसर्गिक जल.
और जीती रही है एक सोंधी जिन्दगी
एक-एक पल.
उसी तरह
वैसे ही.

इतिहास नहीं मूँद पाता है आंखें
संस्कृति के सोंधेपन से.
इतिहास जानता है
कि ऑंखें मूँद लेना
अच्छा नहीं होता,
सक्रिय सार्थक जीवन से.
इतिहास को पता है
कि कार्य-कारण सम्बन्धों के बीच
पनपती है एक सच्चाई,
और पलता है एक यथार्थ.
और यह यथार्थ मात्र एक नारा नहीं होता.
इसकी धमनियों में दौड़ता है रक्त
युग के स्पन्दन से.
सक्रिय सार्थक संस्कृति के सोंधेपन से.

सरूयू नदी के तट की तहों में दबी संस्कृति
पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलाव से गुजरती
आकृतियों पर हॅंसती है
इतिहास टांक लेता है यह हॅंसी
(दो)

मैं देखता हूँ
कि धरती के ऊपर-ऊपर दौड़ती आकृतियॉं,
मुट्ठी भर आकाश पकड़ पाने के मोह में
भुला बैठी हैं धरती की गरिमा.
मैं देखता हूँ
कि मुटृठी भर आकाश पकड़ पाने का मोह
कभी आदमी को नचाता है,
तो कभी उसके पोपले मुँह में डालकर
स्पंज की एक जीभ,
मनचाहे गीत गुनगुनाता है.
और वह आदमी
जो न समझता है गीत,
न गीत के बोल,
आधुनिकता के नशे में
ढोल की तरह बजता है.
वह शायद नहीं जानता
कि आधुनिकता की चीनी मढ़ी गोली,
चेतना-शून्य खुरदरे गले में उतार लेने से,
दुरूस्त नहीं होती
विवके की पाचन-क्रिया.
उसे शायद नहीं है यह पता
कि धरती के विवेक से जुड़कर ही
सार्थक बन पाती है, वह आधुनिकता,
जिसे वह ओढ़ता है.
उसकी समझ अभी
बगीचे की अमिया की तरह कच्ची है.
और उसका विवेक
बरगद की तरह फैलना तो चाहता है,
पर जमीन में अपनी जड़ें नहीं बनाता.
शायद इसी लिए वह नहीं जानता,
कि सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति,
आज भी आधुनिक है.
और यह आधुनिकता
स्वदेशी है,
सार्वभौमिक है.
इसी संस्कृति का सरल सा है एक नाम -
मर्यादा पुरूशोत्तम
दषरथ पुत्र राम!

आदि कवि ने पायी है ऊर्जा इसी से
महाकाव्य रचने की
भवभूति ने पाया है विवेक
धरती के सोंधेपन को
जीवन में ढालने का
कितनी सीधी , सहज और सार्थक है
यह संस्कृति!
मैंने भी खोजा है
इसी की तहों में जिन्दगी जीने का रास्ता
और यह रास्ता जोड़ता है
आदमी से आदमी को
मुझको, आपको, सभी को

(तीन)

गंगा के आंचल में जन्मा मैं
पाकर विन्ध्यवासिनी का आशीर्वाद
जलाता हूँ मन के सूने कुटीर में
श्रद्धा के दीप
और यह अविरामयुक्त गंगा
सागर तक पहुँच कर
उछालती है दामन में मेरे
बहुमूल्य मोती से भरा एक सीप
दमक-दमक उठती है
सरयू के तट की तहों में दबी संस्कृति की
दीप्यमान छवियां
व्यक्त हो जाती हैं
अन्तर में मेरे सहज ही
धर्म , नीति और त्याग की त्रिमूर्तियॉं
ढीले पड़ जाते हैं सगुण और निर्गुण के बन्धन
रह जाता है अन्तर की परतों में
संस्कृति का सोधापन
और मैं इस सोंधेपन के भीतर देखता हॅू
अपने समूचे देश का एक नक्शा
मुझे लगता है
कि शायद नहीं पहचानता इस नक्शे की लकीरें
शायद नहीं भर पाता इस नक्शे में कोई रंग
राजनीति का बौनापन.
असम में धधकती आग को ज़रूरत है
सरयू के जल की
और यह जल
केवल नदी का जल नहीं है
सांस्कृतिक धरोहर है
समूचे देश का
और यह समूचा देश
धर्म , नीति और त्याग का गह्नर है
इसका विरोधी है जो भी
विदेशी है
विषधर है
सरयू की सुन्दर सुमंगल तरंगों के दर्पण में
आज भी झलकता है
राम, लक्ष्मण और सीता का विमल यश
जिससे टकराकर टूट जाते हैं सहज ही
कलिमल कलश
कलशों के भीतर विराजमान कैकेयी
करती है चीत्कार
लगता है घाव जब कर्कश
और वह जो भक्ति-पुंज गंगा है विराट
सात्विक है जिसका ललाट
ऑंचल में जिसके मैं जन्मा हूं, पला हूँ
समेट कर अन्तर में सरयू की संस्कृति
देती है उसको समुद्र का विस्तार
बन जाता है सहज ही विश्वव्यापी
सानुज राम
और सीता का प्यार।
धर्म और राजनीति का युग्म
शायद यह नहीं जानता
कि यह प्यार ही भारत है.
(चार)
मैं जब बहुत छोटा था
मैंने सुना था कि मेरा देश गुलाम है
मैंने सुना था कि यह गुलामी
लोहे की एक जंजीर है
जिसने जकड़ रखा है
मेरे देश के इनसानों को
मैंने सुना था कि यह गुलामी एक कुल्हाड़ी है
जो खोद रही है जड़ें
हरे भरे फलदार दरख्तों की
मैंने समाचार पत्रों में देखी थी
भारत माँ की एक तस्वीर
जिसके इर्द-गिर्द लिपटे थे ढेर सारे साँप
मैंने देखा था कि एक बूढ़ा आदमी
जिसे लोग गाँधी कहते थे
तस्वीर के पास बैठा
बजा रहा था महुवर
मैंने देखा था कि ढीली पड़ रही थी
साँपों की जकड़न
मैंने देखी थी एक और तस्वीर
जिसमें वही बूढ़ा आदमी
फूल की पत्ती से काट रहा था
लोहे की जंजीर
मैंने देखा था कि जंजीर कट रही थी
और झड़ रहा था लोहे का बुरादा
मुझे पता है
कि उस बूढ़े महात्मा ने देखा था
राम के भारत का एक स्वप्न
और की थी राम-राज्य की कल्पना
मुझे पता है
कि सरयू की संस्कृति को उतारा था उसने
अपने वक्ष के भीतर
और देना चाहा था उसे
गंगा का विराट रूप
सागर की गहराई और विस्तार
मैं देखता हूँ कि उसकी आँखे मुंदते ही
बिखर गई हैं स्वप्नों की एक-एक कड़ियाँ
टकराते हैं आपस में नीरस शिलापुंज
अँगड़ाई लेती हैं बाँझ स्थितियाँ
हावी हो गई राजनीति के क्षितिज पर
अधिकार लिप्सा
सरयू की संस्कृति के धावमान जल का
ध्वनि चित्र
मानस से
हो चुका है पूरी तरह ओझल

(पाँच)

कितना भयावह है
मेरे देश का वर्तमान
बदल गये हैं चिन्तन के एक-एक प्रतिमान
जलता है गलियों-चौराहों पर संविधान
टाँकने लगा है इतिहास
अन्धी अनुभूतियाँ.
शबरी की आँखें हो गई हैं सजल
ढल गयी है पत्थर में अहिल्या
फिर एक बार
पड़ती नहीं है राम वारिधि की फुहार
जुड़ना नहीं चाहती स्वदेशी जल तत्व से
वर्तमान चिन्तन की विदेशी मरुभूमि.
बनती हैं नित्य योजनाएँ
दलितों को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाने की
और वह जो सचमुच दलित हैं
जलती हैं आए दिन उनकी झोपड़ियाँ
भस्म हो जाती हैं बोलती प्रतिमाएँ

(छः)
सरयू से लेकर मैं उसकी ओजस्विता
चाहता हूँ रचना कुछ शब्द चित्र
भारतीय संस्कृति के
गंगा की उज्ज्वल तरंगों के मध्य से
चाहता हूँ लेना सहज बिम्ब
आगम, निगम, पुराण और स्मृति के
प्रीतिमत्त मेरा मन
करता है सागर की लहरों का
शब्दानुसंधान !
और मैं वाणी की गति से परे
करता हूँ आत्मक-मन्थन
मन की चंचलता शान्त-बिन्दु पर पहुँकर
हो जाती है स्वतः निःस्वर
दृष्टि के समक्ष रह जाता है वह आकाशव्यापी मन
गूँजती है जिसमें-
सरयू की, गंगा की , सागर की धड़कन
हरी-भरी दीखती है जिससे
कौशल्या की गोद
विहँसता है दशरथ का आँगन
बनकर उभरता है किरण-बिन्दु संस्कृति का
मानस में मेरे केवल एक शब्द-राम!
पाती है आशीश उर्वरा शक्ति मेरी
अभिव्यक्त ध्वनियों की लीलाएँ
करती हैं बिम्बित
कविता के आयाम.
****************

4 टिप्‍पणियां:

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

क्यों आक्षेपित बार बार कारते हो राम को ?
कुपुत्र कहलाते जो वन ना जाते
लेते न जो अग्नि-परीक्षा ,धर्म विरुद्ध तुम ही कहते !
धोबी के वचन को भरी सभा जो मर्म न देते ,
केवल रघुवंशी चक्रवर्ती साम्राट राम तुम ही कहते |
क्या बार-बार के उन्ही आक्षेपों की है ग्लानि यह ?
जो अयाचित, राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहाते हो
और भी आगे बढ,राम को भगवान के सिंहासन पर
बैठाते हो ||
कोई मेरे इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर भी दे पायेगा ,
क्या ? राम सी मर्यादा किसी और ने भी निभाई है?

कालचक्र पर भी आईये और कबीरा के गीत गाईये मगर मेरे चिटठा की शंकाओं का समाधान लगे हाथ अवश्य करते जाईयेगा

युग-विमर्श ने कहा…

प्रिय बन्धु,
श्रीराम को जो जिस रूप में मनाता हो, मानता हो. मैं उन्हें केवल. जल संस्कृति का प्रतीक मानता हूँ. मेरी दृष्टि में संस्कृतियाँ धर्म से नियंत्रित नहीं होतीं. भौगोलिक चौहद्दियों और जलवायु के आधार पर संस्कृतियों का विकास होता है. हिंदू मुस्लिम या सामासिक संस्कृति जैसे शब्द मुझे अर्थहीन से लगते हैं. संस्कृतियाँ पहाडी हो सकती हैं, मैदानी हो सकती हैं, वन संस्कृति हो सकती है और जल संस्कृति हो सकती है जो नदियों दरियाओं के आस-पास विकसित होती है. वाल्मीकि ने राम को केवल नायक के रूप में प्रस्तुत किया है, भगवान के रूप में नहीं. कबीर ने तो स्पष्ट कह दिया कि जो पैदा होता है और मरता भी है वह भगवान नहीं हो सकता. मैं इन पचडों में नहीं पड़ता.
राम-कथा का विकास मेरी दृष्टि में जल-संस्कृति का विकास है. मैं राम को सरयू-पुत्र मानता हूँ. उनकी यात्रा भी सरयू से गंगा और गंगा से समुद्र तक की है. वह जल संस्कृति जो सरयू से प्रारंभ होती है निरंतर विस्तार प्राप्त करती चली जाती है और अंत में समुद्र की अनंतता प्राप्त कर लेती है. मूर्त रूप में राम मेरे इस काव्य के नायक अवश्य हैं किंतु अमूर्त रूप में भारतीय संस्कृति को ही मैं ने इसका नायक माना है. यह हिन्दुओं की संस्कृति नहीं है, यह सम्पूर्ण भारत की संस्कृति है, जिसमें हिंदू, मुसलमान सिख, पारसी, बौद्ध, यहूदी, लिंगायत, आदिवासी, दलित, नर, नारी, सभी रहते हैं. जहाँ तक श्री राम का प्रश्न है, वह प्रारंभ में केवल दलितों के मार्ग-दर्शक थे. दलित समुदाय में और पिछडे वर्ग में राम वाले नाम जितने अधिक मिलेंगे वह उच्च वर्ण में नहीं मिलेंगे. उनके नामों का जुडाव कृष्ण के प्रति अधिक है. लाल कृष्ण अडवानी, अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी आदि के नाम आप स्वयं देख सकते हैं. राम लीलाओं में सामान्य रूप से उच्च वर्ण के लोग अभिनय नहीं करते.
आपने अपने विचार जो कविता के माध्यम से टंकित किए हैं उन्हें मैं समझ सकता हूँ. किंतु अनादर भावना मेरे मन में किसी के प्रति नहीं है. आपको यदि कोई पसंद नहीं है तो उसकी उपेक्षा कीजिये, किंतु अनादर नहीं.

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: ने कहा…

मेरे द्वारे आए आप का स्नेह था | आप की प्रति टिप्पणी देखी ;मेरा आप से अनुरोध है की मेरी टिप्पणी को फ़िर से पढ़ें और कई बार भी ;इसे अन्यथा न लीजियेगा | आज की समस्या यह कि समाज के कुछ रह नुमा समय चक्र को उलटा घुमा कर बहुत पीछे ले जाना चाआहते हैं तो कुछ लोग कालचक्र को इच्छा गति दे कर गत काल को आज प्रत्यक्ष करना चाहते है ,| ये सभी भूल जाते हैं कि अलग अलग युग कि काल रेखा सदैव समनांतर होती है और जहाँ वे आपस में मिलतीं हैं ,वहाँ पर उनका काल मान सदैव शून्य हो जाता है |हम यातो आज कि मान्यताओं की कसौटी पर उस काल के कार्यो - कथनों को कसना चाहते हैं अथवा उस काल की मान्यताओं को आज का ' मीज़ान ' बनाना चाहतें है \
शायद भारतीय वांग्मय का यही अकेला चरित्र 'राम ' ही ऐसा चरित्र है जिसकी सर्वव्यापकता का कोई जोड़ नही है अगर एक आंशिक रूप मँ भी अगर कोई आता भी है तो वहभी राम का ही प्रति-रूप 'हनुमान'हैं |खैर चर्चा राम की होरही थी \
राम का ही चरित्र अकेला मूर्त और अमूर्त रूप चरित्र है यही साकार और निराकार दोंनो रूप में मान्य एवं स्वीकृत है ,आप की नज्म या 'कथ्य 'पढ़ कर लगा कि शायद राम को आप समझ पाए हों ,मगर आप कि प्रति टिप्पणी की अन्तिम आठ -दस लाईनों से स्पष्ट हो जाता है की आप ने भी राम को राजनीतिक चश्में से ही देखा है , | कोई बात नही हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है अपनी आधारभूत मान्यताएं होतीं हैं |हाँ आप की प्रति टीप ..से लग k रहा है ,कि आप के पास मेरी कुछ शंकाओं का समाधान अवश्य है कृपया anyonasti-chittha.blogspot.com पर आकर कृतार्थ करें |
लिखना मै 'आतिश -ए -नूर 'चाहता था एक तो सॉफ्ट वेयर कि समस्या दूसरे रोमनी-कृत हिन्दी का अभ्यस्त ना होना इसी प्रकार बहुत मेहनत के बाद भी ऐडम लिखा रहा यह तो इधर जाकर अदम हो पाया | आतिश का प्रयोग यहाँ पर सहिऔर सोच समझ कर किया गया था ,और यह नज्म आजकी नही लगभग चालीस वर्ष पुरानी होने के साथ साथ लखनऊ की नशिस्त में पढी भी जा चुकी थी |
मुलाकात बनी रहे ,बात निकली है तो दूर तलक जाए इसी शुभकामनाओं के साथ

roushan ने कहा…

आपकी कविता पर टिप्पणी करने कि हिमाकत ऐसे ही होगी जैसे एक छोटा सा दीया रौशनी के पहाड़ की तारीफ़ करे पर आपके भावों को एक अवधी होने के नाते सराहने से ख़ुद को नही रोक पा रहे हैं.
राम के कई रूप हैं.
कुछ रूपों जिनपर हमने सोचा है वो है
वाल्मीकि के राम , तुलसी के राम और गांधी के राम.
गांधी के राम उन सभी रूपों में हमें सबसे अधिक प्रिय हैं क्योंकि वहां एक शुद्ध नैतिकता और सम्पूर्णता है
राम की एक और पहचान भौगोलिक चौहद्दियों के आधार पर और सामान्य जन मानस के प्रेरक के रूप में है जिसको आपने सुंदर तरीके से वर्णित किया है
उम्मीद है आपका यह संदेश दूर तक जायेगा