शनिवार, 22 नवंबर 2008

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.

कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
ये तूफानी हवाएं मौसमों के मन को पढ़ती हैं.
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हवेली से उतर कर धूप की कुछ टोलियाँ अक्सर,
गरीबों के भी मिटटी वाले घर आँगन को पढ़ती हैं.
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फटे कपडों में उपले पाथती वो सांवली लड़की,
निगाहें उसकी ठोकर खाते अल्ल्हड़पन को पढ़ती हैं.
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जो गीली लकडियाँ मिटटी के चूल्हे में सुलगती हैं,
कभी ख़ुद को, कभी दम तोड़ते ईंधन को पढ़ती हैं.
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उन्हें कुछ भी नहीं मालूम कहते हैं किसे बचपन,
वो चक्की और जाँते में उसी बचपन को पढ़ती हैं.
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शहर से आ के भी, बेचैन हैं, वैधव्य की खबरें,
कभी बिंदिया, कभी चूड़ी, कभी कंगन को पढ़ती हैं.
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ये पीपल पर पड़े झूलों की पेंगें साथ गीतों के,
हवाओं में नशे में झूमते सावन को पढ़ती हैं.
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2 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'हवेली से उतर कर…'
बहुत ही सुन्दर!