पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.
दूसरे भी हैं सही, ये कभी समझेगा नहीं.
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ऐब देखेगा वो तुम में, ये है फ़ितरत उसकी,
ख़ुद कभी अपने गरीबान में झांकेगा नहीं.
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लुत्फ़ ये है कि समझता है वो आलिम ख़ुद को,
यानी, कम-इल्मी के इक़रार से गुज़रेगा नहीं.
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नाग का ज़ह्र भी है उसमें, है खसलत भी वही,
जिसके पड़ जायेगा पीछे, उसे बख्शेगा नहीं.
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वो समझता है कि सब कुछ है उसी के दम से,
अपनी खुश-फ़हमियों के खोल से निकलेगा नहीं.
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जानलेवा हुआ करता है ये मज़हब का नशा,
जिसको चढ़ जायेगा, आसानी से उतरेगा नहीं.
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Sunday, November 9, 2008
पेश कितनी भी दलीलें करो, मानेगा नहीं.
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1 comment:
लुत्फ़ ये है कि समझता है वो आलिम ख़ुद को,
यानी, कम-इल्मी के इक़रार से गुज़रेगा नहीं.
bahot umda ,, bahot khub likha hai aapne bahot badhiya ...
Mere blog me aapka swagat hai ummid hai mulakat hogi .....
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