सोमवार, 24 नवंबर 2008

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म / तनवीर सप्रा

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म.
शायद इसी सूरत में सुकूँ पाये मेरा जिस्म.
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आगोश में लेकर मुझे इस ज़ोर से भींचो,
शीशे की तरह छान से चिटख जाए मेरा जिस्म.
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किस शहरे-तिलिस्मात में ले आया तखैयुल,
जिस सिम्त नज़र जाए, नज़र आए मेरा जिस्म.
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या दावए-महताबे-तजल्ली न करे वो,
या नूर की किरनों से वो नहलाये मेरा जिस्म.
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आईने की सूरत हैं मेरी ज़ात के दो रूख़,
जाँ महवे-फुगाँ है तो ग़ज़ल गाये मेरा जिस्म.
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ये वह्म है मुझको कि बालाओं में घिरा हूँ,
हर गाम जकड लेते हैं कुछ साए मेरा जिस्म.
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