इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.
दारो-रसन का हो न उसे क्यों बला का शौक़.
देखे कभी कोई मेरी ज़ंजीर-पा का शौक़.
इन्सां की बेहतरी के लिए है दुआ का शौक़.
खुद भूके रहके बच्चों को सब कुछ खिला दिया,
कुर्बानियों में पलता रहा मामता का शौक़.
कर लेते हैं वो मौत से पहले कुबूल मौत,
जिनके दिलों में होता है उसकी रिज़ा का शौक़.
ज़िक्रे-ख़फी से रूह की दुनिया बदल गयी,
रुखसत हुआ मिज़ाज से हिर्सो-हवा का शौक़.
नैजे की नोक पर भी रहा सर-बलंद मैं,
खंजर तले भी दब न सका कर्बला का शौक़.
दो-जिस्म खुशबुओं को मिलाकर है खुश बहोत,
हैरत से देखता हूँ मैं बादे-सबा का शौक़.
******************
इज़हारे-हक़ = सत्य की अभिव्यक्ति, इन्तेहा = चरम सीमा तक, दारो-रसन = हथकडी-बेडी और सूली, बला = अत्यधिक, ज़ंजीरे-पा = पाँव की ज़ंजीर, रिज़ा = स्वीकृति, ज़िक्रे-खफ़ी = मौन-साधना, हिर्सो-हवा = लोभ लालच, प्रातः की पुरवा हवा.
सोमवार, 22 जून 2009
इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.
अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य : पुष्प / 4 ]
पुष्प - 4 : चिन्तन के अन्तरिक्ष
[एक ]
लोग कहते हैं कि विधाता चुनता है
अपनी इच्छानुरूप आदमी को
और लाद देता है उस पर
दुःख- सुख की गठरी,
जिसे चुपचाप ढोने की प्रक्रिया
बन जाती है आदमी की नियति.
और इस नियति पर
नहीं होता आदमी का कोई नियन्त्रण
लोग क्यों नहीं सोचते
कि आदमी के हर निर्णय के साथ
जुड़ा है एक इतिहास
और यह इतिहास करता है रेखांकित
आदमी का आदमी से जुड़ना,
जुड़कर अलग होना,
अलग होकर जुड़े रहना.
इतिहास का यह रेखांकन
बताता है बैर और मैत्री के सन्दर्भ,
सन्दर्भों में निहित मूल्य,
मूल्यों के निर्माण में सक्रिय भूमिकाएँ.
इतिहास कभी थोपता नहीं आदमी पर
होनी अनहोनी घटनाएँ.
बल्कि छोड़ देता है उसे स्वतन्त्र
कुछ चुनने और न चुनने के बीच.
आदमी की यही स्वतन्त्रता
बनाती है उसकी पहचान
और यह पहचान ही करती है रूपायित
आदमी की नियति का ढाँचा.
लक्ष्मण के माथे पर खिंची रेखाएँ,
बनाना चाहती थीं
इतिहास का कुछ और नक्शा.
टूट रहे थे उस नक्शे में
पिता और पुत्र के सम्बन्ध,
टूट रही थीं पुरानी मान्यताएँ ,
आ रही थी विद्रोह की गन्ध.
पर वह, जिसे कहते हैं लोग
मर्यादा पुरूषोत्तम,
जिसे मानता हूँ मैं
तमाम संस्कृतियों का उद्गम,
जिसे पाया है मैंने
स्वार्थमुक्त , सुन्दर और अनुपम.
वह भी बना रहा था एक नक्शा.
और यह नक्शा
बहुत अलग था लक्ष्मण के नक्शे से.
इसमें राजगद्दी की जगह था एक वन- खण्ड ,
विद्रोह की जगह था प्रेम और भाई चारा .
यह नक्शा आम आदमी के लिए था एक सहारा
लक्ष्मण ने ध्यान से देखा था इस नक्शे को
इसकी एक- एक लकीर को
ढीली पड़ गयीं लक्ष्मण के माथे की तनी रेखाएँ
ढीली पड़ गयीं भिंची हुई मुट्ठियाँ
और मुट्ठियों में बन्द भावी योजनाएँ
कुछ चुनने और न चुनने के बीच खड़े लक्ष्मण
खोजने लगे अपनी पहचान
राम के नक्शे के भीतर
महल के एक तारीक झरोखे में खड़ी उर्मिला
देख रही थी लक्ष्मण की आँखों में
इतिहास का बदलाव
बन्धुत्त्व के स्नेहानुबन्ध का गहराता सागर
और उस सागर का बहाव
फैल गयी थीं उसकी आँखों के सामने
ढेर सारी तस्वीर
[दो ]
लोग कहते हैं कि अपने सतीत्व के सबूत में
सीता को देनी पड़ी थी अग्नि परीक्षा
और यह परीक्षा ही उतार पायी थी
राम की तनी हुई भौंहों की प्रत्यंचा
लोग शायद नहीं जानते अग्नि परीक्षा का अर्थ
लोग शायद नहीं जानते
आग में तपकर कुन्दन हो जाने की कला
दहक रही थी लंका में राम के विरुद्ध
शत्रुता की जो आग
सीता तपी थीं उस आग के भीतर
और नहीं आ सकी थी
उनके व्यक्तित्व पर कोई आँच
सीता ने बता दिया था
कि आदमी के लिए जरूरी है
आग के बीच से होकर गुजरना
और इस गुजरने में
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना
फिर वह, जिसे गुजरना पड़ा हो
चौदह वर्षों की विरहाग्नि के बीच से होकर
और जो निकल आया हो
इस आग के भीतर से बेदाग
लोगों को चाहिए कि उससे पूछें
क्या होती है जीवन की अग्निपरीक्षा
क्या होता है अग्नि परीक्षा से गुजरना
और इस गुजरने के बीच
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना
राम और लक्ष्मण का
मात्र एक निर्णय
छोड़ गया उर्मिला के पास
तपस्या के लिए एक दहकता वन -प्रान्तर
और कंचन जैसा उर्मिला का व्यक्तित्व
सहज ही तब्दील हो गया कुन्दन में
एक लम्बी अग्नि परीक्षा में तप कर
[तीन ]
मैं देख रहा हूँ राजभवन की सियाह दीवारें
दीवारों से चिपके दशरथ की मृत्यु के भयावह चित्र
चित्रों की हथेली पर उगा हुआ एक जंगल
जंगल में दौड़ते भूखे पशु.
मैं देख रहा हूँ घने पेड़ों के बीच से झाँकती
नियति की लाल -लाल आँखें
आँखों में जमा हुआ रक्त
रक्त से फूटती मृत्यु की दुर्गन्ध
मैं देख रहा हूँ उर्मिला के मर्म की पर्तों में जलता
सम्पूर्ण राजभवन
भवन में फैलती आग की लपटें
लपटों के बीच चिटखता
दशरथ का पार्थीव शरीर
चल रहे हैं जिस पर
वरदानों के अग्नि-बाण
राजभवन के भीतर और बाहर
रह गई शेष केवल राख.
कीर्ति के वैभव का इतिहास
राजभवन से दूर
जी रहा है अरण्य-संस्कृति .
मैं देख रहा हूँ
कि सूने सपाट मैदान में बैठी उर्मिला
अंगुलियों से कुरेद रही है जलती हुई राख
धरती की आह बन गयी है एक शब्द
‘राख के ढेर में षोला है न चिंनगारी है '
किन्तु उर्मिला के भावी जीवन की राख
अभी सर्द नहीं हो पायी है
वह जानती है
धरती के संवेदनषील वक्ष में भर देना
अपने चिंतन की हरारत,
अपनी ओजस्विता का ताप.
क्योंकि उसमें अभी शोला भी है
और चिंगारी भी
क्योंकि उसकी माँग का सिन्दूर
राम और सीता का अंगरक्षक बनकर
जी रहा है एक गौरवपूर्ण जिन्दगी .
[चार ]
मैके में संजोई गई आनन्द की स्थितियाँ
ससुराल की त्रासदी में
मेंहदी की तरह पिस कर
हो रही हैं आतुर
विकीर्ण करने को एक नयी लालिमा
दायित्व के तेज और संकल्प की गरिमा ने
तोड़ दी हैं सुषुप्तावस्था की चौहद्दियाँ
उभर आया है नारी का समूचा व्यक्तित्व.
सखियों के मध्य घिरी उर्मिला
कौशल्या और सुमित्रा का ममत्व
और माण्डवी का स्नेह पाकर
लक्ष्मण प्रवास के दुखद घेरे से
निकल आई है बाहर .
राजभवन से जंगल की ओर जाने वाला मार्ग
करने लगा है व्याख्यायित
कर्म योग का एक-एक पहलू
फैल रही है आहिस्ता-आहिस्ता
गुलाबों की खुषबू .
[पाँच ]
आकाश सिमठ कर आ गया है
उर्मिला की मुठ्ठी में ,
खुल गए हैं चेतना के सारे गवाक्ष.
गुनगुनाता है चिन्तन के अन्तरिक्ष में
एक पक्षी .
गोद को हरी-भरी देखना कौन नहीं चाहता
कौन नहीं चाहता बनाना
वात्सल्य की एक तस्वीर
शिशु के लिए बनाती है जब कोई गोद
छोटा सा एक दायरा
तो सामने आ जाता है ममत्व का खाका
और जब यह दायरा
हो जाता है कुछ बड़ा
और समेट लेता है अपने भीतर सम्पूर्ण धरती
तो गहरी हो जाती है विश्वबंधुत्व की रेखाएँ
आदमी को दायरों में बाँटकर देखना
कर देता है धरती को बहुत छोटा
और धरती जब हो जाती है
आदमी के लिए बहुत छोटी
तो पड़ जाती है आदमी और आदमी के बीच दरारें.
दूसरों का दुख होता है
अपने दुख से कहीं अधिक गहरा
पर उस गहराई को आँकने के लिए
जरूरी है आदमी में वह संवेदनशीलता
जो उठाती है आदमी और धरती को बहुत ऊँचा
और धरती और आदमी के संयोग से
जिन्दगी को मिल जाती है एक परिभाषा. '
[छः ]
मैं देखता हूँ चेतना के गवाक्षों में
उर्मिला के चिन्तन का समूचा अन्तरिक्ष
सुनता हूँ अन्तरिक्ष में बजती
जलतरंग की धुनें,
धुनों में हो जाता हूँ गिरफतार
पहन लेता हूँ आवाजों की हथकड़ियाँ
राजवधू बनकर जीवन काट लेना
कहीं अधिक सरल है
जन हिताय जीने से
विष उंडेल देने से बनती नहीं आदमी की पहचान
आदमी की पहचान बनती है विष पीने से.
देश के नक्शे की लकीरें
बांधती हैं सीमाओं में आदमी को
और देश की धरती सिखाती है आज़ादी
आदमी देता है नक्शे की लकीरों को रूप और आकार
आदमी को रूप और आकार देती है धरती.
मैं देखता हूँ उर्मिला को पूरी तरह आश्वस्त
विरह की धधकती ज्वालाएं
नहीं कर पातीं उसे पीड़ित और संत्रस्त.
आदमी जानता है जब धरती के यथार्थ से आँखें मिलाना
तो सिमट जाता है उसकी चेतना में समूचा युग
उर्मिला ने देखा है अपने समूचे युग को
अपनी चेतना के गवाक्षों के भीतर
उसने पहचाना है
धरती के यथार्थ का एक-एक अक्षर.
[ सात ]
दलितों की बस्ती में
नाचती हैं जहाँ सूर्य की किरणें
थिरकती हैं जीवन की रश्मियाँ
कमसिन, जवान और नंगे अंधेरे जहाँ
हँसते हैं प्रकाशयुक्त सहज हँसी
देखता हूँ मैं
कि तैरती है वहाँ की हवा में उर्मिला
सुगंध पुंज बनकर
देखता हूँ मैं कि एक हरी क्रांति
फूटती है धरती से
भर जाती है झोंपडियों के भीतर.
राजभवन आ गया है झुक कर
कच्चे मकानों और फूस के घरों के बराबर.
शबरी के साथ राम करते हैं भोजन.
उर्मिला के माध्यम से अयोध्या में
झुक गया है नीआम्बर,
धरती के चरणों पर.
खोजती हैं सूर्य की किरणें
अपनी उम्र का एक हिस्सा
उर्मिला की सांसों में,
धुंध रहित शामों में,
धुली हुई सुब्हों में,
चमकीली दुपहरियों में.
इतिहास दब गया है वर्त्तमान के नीचे
और हावी हो गई है
देश के मानसून पर कविता
और यह कविता रुदन नहीं है
साधना है
जो खोलती है चिंतन के अन्तरिक्ष.
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रविवार, 21 जून 2009
इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.
इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.
शऊरो-फ़िक्र को खुद पर यकीं नहीं होता.
असर-पज़ीर न होगा वो ज़लज़ले की तरह,
जो इन्क़लाब के ज़ेरे-ज़मीं नहीं होता.
हमारी वज्ह से तख्लीक़े-कायनात हुई,
न होते हम तो कोई ज़ेबो-जीं नहीं होता.
अजब तमाशा है, कहते हैं ला-मकाँ उसको,
वो कौन दिल है जहां वो मकीं नहीं होता.
रुमूज़े-इश्क़ को महफूज़ रखना लाज़िम है,
जमाले-हुस्न वगरना क़रीं नहीं होता.
वही तो है जो नज़र में समाया रहता है,
सिवाय उसके कोई दिल-नशीं नहीं होता.
तरक़्क़ियाँ न कभी आयीं उसके हिस्से में,
सियासतों में जो बारीक-बीं नहीं होता.
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इबारत = अनुलेख, तसलसुल =तारतम्य, शुऊरो-फ़िक्र = विवेक एवं विचार, असर-पज़ीर = प्रभावित, ज़लज़ला = भूकंप, ज़ेरे-ज़मीं = भूमिगत, तख्लीक़े-कायनात = संसार की सृष्टि, ज़ेबो-जीं = सज्जा, लामकां = वह जो आवास से मुक्त हो, मकीं = आवासित, रुमूज़े-इश्क़ = प्रेम के रहस्य, महफूज़ = सुरक्षित, लाज़िम = अनिवार्य, जमाले-हुस्न = रूप-सौन्दर्य, वगरना = अन्यथा, क़रीं = निकट, दिलनशीं = हृदयस्थ, बारीक-बीं = सूक्ष्म-दर्शी.
शुक्रवार, 19 जून 2009
ग़मों से होगा हमारे वो बाख़बर तय है.
ग़मों से होगा हमारे वो बाख़बर तय है.
कभी तो आँख हुई होगी उसकी तर तय है.
बदी को नेकियों से उन्सियत नहीं होती,
जहां में वज्हे-तसादुम हैं खैरो-शर तय है.
कोई अभी कोई ताखीर से करेगा सफ़र,
मगर हरेक के हिस्से में ये सफ़र तय है.
किसी भी शख्स को कमज़ोर क्यों समझते हो,
कहीं है ज़र तो होगा कहीं ज़बर तय है.
वो इल्म क्या के नहीं ज़ौ-फिशानियाँ जिस में,
गुहर की आब पे ही क़ीमते-गुहर तय है.
ये वि शजर है जो मम्नूअ है बशर के लिए,
टिकेगी आके यहीं नीयते-बशर तय है.
वो गुमशुदा भी नहीं और गुमशुदा भी है,
मिज़ाज उसका है दुनिया से बाला-तर तय है.
जो नक़्दे-शेर की लज्ज़त से आशना ही न हो,
अदीब कैसा भी हो है वो कम-नज़र तय है.
मराक़बे में किये जो मकाल्मे हम ने,
शऊरे-नफ़्स में हैं नक्शे-मोतबर तय है.
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बदी = बुराई, उन्सियत = लगाव, वज्हे-तसादुम = टकराव का कारण, ताखीर = विलंब, ज़ौ-फिशानियाँ = दीप्ति / चमक-दमक, गुहर = मोती, आब = कान्ति, मम्नूअ = निषिद्ध, गुम-शुदा = खोया हुआ, बालातर = बहुत ऊंचा, नक़्दे-शेर = शेर की परख, कम-नज़र =सकीर्ण दृष्टि वाला, मराक़बे में = समाधिस्थ स्थिति में, मकाल्मे = सवाद, शऊरे-नफ़्स =आत्मा की जाग्रतावस्था, नक्शे-मोतबर = विश्वसनीय चिह्न.
हर रास्ता जो हक़ का है दुश्वार-तलब है.
आज़ादिए-अफ़कार सरे-दार तलब है.
क़ीमत में अगर सर भी वो मांगे तो नहीं ग़म,
वो साग़रे-उल्फ़त मुझे सौ बार तलब है.
जो तेरी रिज़ा के लिए घर-बार लुटा दे,
ऐसा ही मेरे रब मुझे किरदार तलब है.
देखो के वो करता है तहे-तेग़ भी सज्दा,
जानो के उसे नफ़्स का ईसार तलब है.
फ़ैयाज़िये-खालिक़ पे फ़रिश्ते भी हैं शशदर,
एज़ाज़ को मुझ जैसा ख़तावार तलब है.
इदराक के करता हो चरागों को जो रौशन,
आँखों को वही मंज़रे-खूँबार तलब है.
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हक़ = सत्य, दुश्वार-तलब = कठिनाईयों से पूर्ण, आज़दिये-अफ़कार = विचारों की स्वतंत्रता, सरे दार = सूली के ऊपर, तलब = अपेक्षित, साग़रे-उल्फ़त = प्रेम का प्याला, रिज़ा = स्वीकृति / पसंदीदगी, किरदार = चरित्र, तहे-तेग = तलवार के नीचे, ईसार = दूसरों के हित के लिए किया गया त्याग, फ़ैयाज़िये-खालिक = परमात्मा की कृपाशीलता, शशदर = आर्श्चय-चकित, एज़ाज़ = सम्मान, इदराक = बौद्धिकता, मंज़रे-खूँबार = रक्त बरसाता दृश्य,
बुधवार, 17 जून 2009
ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.
ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.
दिलो-दिमाग की आपस में क्यों ज़िदें हैं बहोत.
ये घाटियाँ जो हैं बर्फ़ीली वादियों से घिरी,
बदलते मौसमों की इन में आहटें हैं बहोत.
हमारे कारवां जिन रास्तों से गुज़रेंगे,
लुटेरे सुनते हैं उन रहगुज़ारों में हैं बहोत.
ये रिश्तेदारियां कैसी हैं खानदानों की,
के खून एक है फिर भी अदावतें हैं बहोत.
पड़ोसियों में बजाहिर तो बात होती है,
मगर है लोगों का कहना के चाश्मकें हैं बहोत.
न सिर्फ़ मस्लकों में लोग हो गए तक़सीम,
छुपी दिलों में सभी के कुदूरतें हैं बहोत.
चुनी है अपने लिए हक़ की राह तुमने अगर,
रहे ख़याल यहाँ आज़्माइशें हैं बहोत.
***************
ज़रूरीयात = आवश्यकताएं, महदूद = सीमित, रहगुज़ारों = रास्तों, अदावतें = शत्रुताएं, मस्लकों = सम्प्रदायों, तकसीम = विभाजित, कुदूरतें = मलिनताएँ, आज़माइशें = परीक्षाएं.
मंगलवार, 16 जून 2009
दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.
दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.
हम अपना घर इसी सूरत सजाते रहते थे.
हरेक गाम पे ये ज़िन्दगी थी ज़ेरो-ज़बर,
तगैयुरात हमें आज़माते रहते थे.
वो चाहते थे भरम हो किसी की आहट का,
हवा के झोंके थे, परदे हिलाते रहते थे.
तअल्लुकात न थे, रस्मो-राह फिर भी थी,
तसव्वुरात में हम आते-जाते रहते थे.
ये बात सच है के हम खस्ता-हाल थे, लेकिन,
गिरे-पड़ों को हमेशा उठाते रहते थे.
न देख पाये कभी भी किसी की तश्ना-लबी,
मयस्सर आब था जितना पिलाते रहते थे.
ये जानते हुए इम्काने-रौशनी कम है,
हवा की ज़द में भी शमएँ जलाते रहते थे.
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सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।
सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।
बस ज़िन्दगी गराँ है बज़ाहिर सुकून है.
काग़ज़ की कश्तियों में हैं साँसों के क़ाफ़्ले,
दरिया हरीफ़े-जाँ है बज़ाहिर सुकून है.
चस्पाँ दिलों के दर पे है दहशत का इश्तेहार,
हर शख्स बे-ज़ुबाँ है बज़ाहिर सुकून है.
ज़ेरे-लिबासे-तक़वा सियः-कारियाँ हैं आम,
ईमान खूँ-चकाँ है बज़ाहिर सुकून है.
अंदेशए - शरारते - बे-जा फ़िज़ा में है,
मंज़र शरर - फ़िशां है बज़ाहिर सुकून है।
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रवां-दवाँ = गतिशील, गराँ = महँगी, हरीफ़े-जाँ = जान का दुश्मन, चस्पाँ =चिपका हुआ, इश्तेहार =विज्ञापन, ज़ेरे-लिबासे-तक़वा =सात्विकता के वस्त्रों के नीचे, सियः कारियाँ = काले धंधे, खूँ-चकाँ = खून से भरा हुआ, अंदेशए-शरारते-बेजा = बेतुके उपद्रव की आशंका, शरर-फ़िशां = चिंगारियों से भरा हुआ।
सोमवार, 15 जून 2009
अबतक साथ निभाया है तो चन्द दिनों की ज़हमत और.
मंज़िल साफ़ नज़र आती है, थोडी सी बस हिम्मत और.
साग़रो-सहबा की सरगोशी से बिल्कुल बे-पर्वा थे,
ख्वाब सजा लेते थे बैठे-बैठे थी वो ताक़त और.
पेड़ों का झुरमुट था, झील का नीला-नीला पानी था,
आँखों की कश्ती में सैर सपाटों की थी लज्ज़त और.
कितने ही औसाफे-हमीदा देख रहे थे हम में लोग,
किसको पता था फूल खिलाएगी तदबीरे-मशीयत और.
अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.
कासए-सर में भर के शराबे-इश्क़ पियो तो बात बने,
मुह्र-बलब रह जाए शरीअत, देख के रंगे तरीक़त और.
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साग़रो-सहबा =प्याला और मदिरा, सरगोशी = कानाफूसी, औसाफे-हमीदा = सत्व-गुण, तदबीरे-मशीयत = दैव-शक्ति के प्रबंध, ज़ात = व्यक्तित्व, वुजूद = अस्तित्व, कास'ए सर = सर का प्याला, मुह्र-बलब = मौन, शरीअत =इस्लामी धर्म-संहिता, तरीक़त = ब्रह्म-ज्ञान,
सभी आबद्ध उत्तर-आधुनिक अनुशासनों से हैं.
ये सच्चाई है सब की सोच के आयाम बदले हैं.
चढाते थे कभी श्रद्धा से गंगाजल जो सूरज को,
उन्हीं हाथों ने उसकी ऊर्जा के मार्ग खोजे हैं.
स्वयं मैं अक्षरों को पढ़ना चाहूँ पढ़ नहीं सकता,
मेरी जीवन कथा के पृष्ठ सब पानी में डूबे हैं.
कलाओं में कोई लालित्य कैसे ढूंढ पायेगा,
फलक की भंगिमाओं के सभी तेवर अनोखे हैं.
अहिंसा शब्द सुनने में बहोत अच्छा सा लगता है,
मगर व्यवहार में हिंसा के हर सू बोलबाले हैं.
ये शैक्षिक योग्यताएं सांसदों को कब अपेक्षित हैं,
वो शिक्ष और है जिस से चुनावों में वो जीते हैं.
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