रविवार, 28 सितंबर 2008
मक्के की सरज़मीन पे
अब क्या गिला करें / सैफ़ जुल्फी
अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।
हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।
दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,
चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।
अपने लहू की आग हमें चाटती रही,
अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।
यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,
फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।
धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,
देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।
वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,
यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।
जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,
वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।
*********************
शनिवार, 27 सितंबर 2008
घटाओं में उभरते हैं
घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।
कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।
मेरे ख़्वाबों में आ जाती हैं क्यों ये चाँदनी रातें,
हथेली पर लिये रंगीन खाके बेशुमार उसके।
मैं था हैरत में, आईने में कैसा अक्स था मेरा,
गरीबां चाक था, मलबूस थे सब तार-तार उसके।
ज़माना किस कदर मजबूर कर देता है इन्सां को,
सभी खामोश रहकर झेलते हैं इंतेशार उसके।
फ़रिश्ता कह रही थी जिसको दुनिया, मैंने जब देखा,
बजाहिर था भला, आमाल थे सब दागदार उसके।
मुहब्बत का सफर 'जाफ़र' बहोत आसां नहीं होता,
रहे-पुरखार उसकी, आबला-पाई मेरी,गर्दो-गुबार उसके।
*******************
हैरत-ज़दा है सारा जहाँ
लगते नहीं हैं शाम के तेवर भले मुझे।
खुशहाल ज़िन्दगी से न था क़ल्ब मुत्मइन,
मैं अपनी मंज़िलों का पता जानता हूँ खूब,
वाक़िफ़ रुमूज़े-इश्क़ से मैं यूँ न था कभी,
रास आये तेरे साथ बहोत रतजगे मुझे।
कब देखता हूँ तेरे एलावा किसी को मैं,
कब सूझता है तेरे जहाँ से परे मुझे।
सुनता रहा मैं गौर से कल तेरी गुफ्तुगू,
मफहूम तेरी बातों के अच्छे लगे मुझे।
ग़म अपने घोलकर मैं कई बार पी चुका,
अब हादसे भी लगते नहीं हादसे मुझे।
***************
शुक्रवार, 26 सितंबर 2008
खामोश होगी कब ये ज़ुबाँ

जुनूँ से खेलते हैं / महबूब खिज़ाँ
बार-बार एक ही नज़्ज़ारा /खाक़ान ख़ावर
ख्वाब बहोत देखे थे हमने
फिर भी दुख झेले थे, हमने, तुमने, सबने।
खेतों में उग आई हैं साँपों की फसलें,
बीज ये कब बोये थे, हमने, तुमने, सबने।
क्यों नापैद हुए जाते हैं अम्न के गोशे,
प्यार जहाँ बांटे थे, हमने, तुमने, सबने।
आहिस्ता-आहिस्ता ख़ाक हुए सब कैसे,
जो रिश्ते जोड़े थे, हमने, तुमने, सबने।
तहरीरों से वो अफ़साने गायब क्यों हैं,
जो सौ बार पढ़े थे, हमने, तुमने, सबने।
मिटटी के खुशरंग घरौंदे दीवाली पर,
क्यों तामीर किये थे, हमने, तुमने, सबने।
पहले दहशतगर्द नहीं होते थे शायद,
कब ये लफ़्ज़ सुने थे, हमने, तुमने, सबने।
*******************
होने की गवाही के लिए / जमाल एह्सानी
गुरुवार, 25 सितंबर 2008
कशिश आमों की ऐसी है
इसी सूरत से हम भी तुमसे मिलने रोज़ आते हैं।
तलातुम है अगर दरिया में घबराने से क्या हासिल,
हमारी ज़िन्दगी में तो ये खतरे रोज़ आते हैं।
परीशाँ क्यों हो उस कूचे में तुम अपने क़दम रखकर,
बढी है दिल की धड़कन ? ऐसे लम्हे रोज़ आते हैं।
सभी नामेहरबाँ हैं, गुल भी, मौसम भी, फ़िज़ाएं भी,
हमारे इम्तेहाँ को, कैसे-कैसे रोज़, आते हैं।
कभी ख्वाबों पे अपने गौर से सोचा नहीं मैंने,
मेरे ख्वाबों में नामानूस चेहरे रोज़ आते हैं।
कहा मैंने कि ये तोहफा मुहब्बत से मैं लाया हूँ,
कहा उसने कि ऐसे कितने तोहफ़े रोज़ आते हैं।
तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।
******************