रविवार, 28 सितंबर 2008

मक्के की सरज़मीन पे

मक्के की सरज़मीन पे, काबा नहीं मिला।
देखा जो दिल में झाँक के, सब कुछ यहीं मिला।
गुम हो गया था मैं भी ज़माने की भीड़ में,
तनहा हुआ तो राज़े-दिले-हमनशीं मिला।
सजदे में सर झुकाया था मैंने खुलूस से,
लम्स उसके हाथ का मुझे जेरे-जबीं मिला।
इन मंजिलों से पहले था बिल्कुल मैं नाशानास,
निकला तो गरदे - राह में अर्शे - बरीं मिला।
देखा जो प्यार से, तो सभी थे मेरी तरह,
दुश्मन न पाया कोई, न कोई लईं मिला।
मुझको ही कर दिया था जहाँ ने सुपुर्दे-ख़ाक,
मैं ही था वो खज़ाना जो ज़ेरे-ज़मीं मिला।
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अब क्या गिला करें / सैफ़ जुल्फी

अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।

हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।

दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,

चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।

अपने लहू की आग हमें चाटती रही,

अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।

यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,

फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।

धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,

देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।

वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,

यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।

जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,

वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।

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शनिवार, 27 सितंबर 2008

घटाओं में उभरते हैं

घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।

कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।

मेरे ख़्वाबों में आ जाती हैं क्यों ये चाँदनी रातें,

हथेली पर लिये रंगीन खाके बेशुमार उसके।

मैं था हैरत में, आईने में कैसा अक्स था मेरा,

गरीबां चाक था, मलबूस थे सब तार-तार उसके।

ज़माना किस कदर मजबूर कर देता है इन्सां को,

सभी खामोश रहकर झेलते हैं इंतेशार उसके।

फ़रिश्ता कह रही थी जिसको दुनिया, मैंने जब देखा,

बजाहिर था भला, आमाल थे सब दागदार उसके।

मुहब्बत का सफर 'जाफ़र' बहोत आसां नहीं होता,

रहे-पुरखार उसकी, आबला-पाई मेरी,गर्दो-गुबार उसके।

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हैरत-ज़दा है सारा जहाँ

हैरत-ज़दा है सारा जहाँ देख के मुझे।
क्या गहरी नींद आयी है खंजर तले मुझे।
मैं सुब्हे-रफ़्ता की हूँ शुआए-फुसूं-तराज़,
लगते नहीं हैं शाम के तेवर भले मुझे।
खुशहाल ज़िन्दगी से न था क़ल्ब मुत्मइन,
फ़ाकों की रहगुज़र ने दिए तजरुबे मुझे।
मैं अपनी मंज़िलों का पता जानता हूँ खूब,
गुमराह कर न पायेंगे ये रास्ते मुझे।
वाक़िफ़ रुमूज़े-इश्क़ से मैं यूँ न था कभी,
रास आये तेरे साथ बहोत रतजगे मुझे।
कब देखता हूँ तेरे एलावा किसी को मैं,
कब सूझता है तेरे जहाँ से परे मुझे।
सुनता रहा मैं गौर से कल तेरी गुफ्तुगू,
मफहूम तेरी बातों के अच्छे लगे मुझे।
ग़म अपने घोलकर मैं कई बार पी चुका,
अब हादसे भी लगते नहीं हादसे मुझे।

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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

खामोश होगी कब ये ज़ुबाँ


खामोश होगी कब ते ज़ुबाँ कुछ नहीं पता।

बदलेगा कब निज़ामे-जहाँ कुछ नहीं पता।

कब टूट जाए रिश्तए-जाँ कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता।

चेहरों पे है सभीके शराफ़त का बांकपन,

मुजरिम है कौन-कौन यहाँ कुछ नहीं पता।

सबके माकन फूस के हैं, फिर भी सब हैं खुश,

उट्ठेगा कब कहाँ से धुवां कुछ नहीं पता।

मंज़िल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी मगर,

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता।

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया,

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता।

कल आसमान छूती थीं जिनकी बलंदियाँ,

कब ख़ाक हो गए वो मकाँ कुछ नहीं पता।

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक नाम,

फिर क्यों है फ़िक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता।

शाखें शजर की कल भी रहेंगी हरी-भरी,

कैसे कोई करे ये गुमाँ कुछ नहीं पता।

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जुनूँ से खेलते हैं / महबूब खिज़ाँ

जुनूँ से खेलते हैं, आगही से खेलते हैं।
यहाँ तो अहले-सुखन आदमी से खेलते हैं।
तमाम उम्र ये अफ़्सुर्दगाने-मह्फ़िले-गुल,
कली को छेड़ते हैं, बेकली से खेलते हैं।
फराज़े-इश्क़ नशेबे-जहाँ से पहले था,
किसी से खेल चुके हैं, किसी से खेलते हैं।
नहा रही है धनक ज़िन्दगी के संगम पर,
पुराने रंग नई रोशनी से खेलते हैं।
जो खेल जानते हैं उनके और हैं अंदाज़,
बड़े सुकून, बड़ी सादगी से खेलते हैं।
खिज़ाँ कभी तो कहो एक इस तरह की ग़ज़ल,
की जैसे राह में बच्चे खुशी से खेलते हैं।
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बार-बार एक ही नज़्ज़ारा /खाक़ान ख़ावर

बार-बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर।
बात दिलकश भी अगर हो तो न दुहराया कर।
लोग गिर जाते हैं मिटटी के घरौंदों की तरह,
इस तरह बारिशे-दीदार न बरसाया कर।
पेड़ का साया नहीं, टूटा हुआ पत्ता हूँ,
मुझको जज़बात के दरया में न ठहराया कर।
टूट जाए न किसी रोज़ तेरा शीश महल,
यूँ सरे-राह न दीवानों को समझाया कर।
मेरे एहसास को इक फूल बहोत है ख़ावर,
मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर।
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ख्वाब बहोत देखे थे हमने

ख्वाब बहोत देखे थे, हमने, तुमने, सबने।
फिर भी दुख झेले थे, हमने, तुमने, सबने।
खेतों में उग आई हैं साँपों की फसलें,
बीज ये कब बोये थे, हमने, तुमने, सबने।
क्यों नापैद हुए जाते हैं अम्न के गोशे,
प्यार जहाँ बांटे थे, हमने, तुमने, सबने।
आहिस्ता-आहिस्ता ख़ाक हुए सब कैसे,
जो रिश्ते जोड़े थे, हमने, तुमने, सबने।
तहरीरों से वो अफ़साने गायब क्यों हैं,
जो सौ बार पढ़े थे, हमने, तुमने, सबने।
मिटटी के खुशरंग घरौंदे दीवाली पर,
क्यों तामीर किये थे, हमने, तुमने, सबने।
पहले दहशतगर्द नहीं होते थे शायद,
कब ये लफ़्ज़ सुने थे, हमने, तुमने, सबने।

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होने की गवाही के लिए / जमाल एह्सानी

होने की गवाही के लिए ख़ाक बहोत है।
या कुछ भी नहीं होने का इदराक बहोत है।
इक भूली हुई बात है, इक टूटा हुआ ख्वाब,
हम अहले-मुहब्बत को ये इम्लाक बहोत है।
कुछ दर-बदरी रास बहोत आई है मुझको,
कुछ खाना-खराबों में मेरी धाक बहोत है।
परवाज़ को पर खोल नहीं पाता हूँ अपने,
और देखने में वुसअते अफ्लाक बहोत है।
क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब,
क्यों इन दिनों मैली तेरी पोशाक बहोत है।
आंखों में हैं महफूज़ तेरे इश्क के लमहात ,
दरया को खयाले-खसो-खाशाक बहोत है।
तनहाई में जो बात भी करता नहीं पूरी,
तक़रीब में मिल जाए तो बेबाक बहोत है।
नादिम है बहोत तू भी जमाल अपने किए पर,
ले देख ले, वो आँख भी नमनाक बहोत है।
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गुरुवार, 25 सितंबर 2008

कशिश आमों की ऐसी है

कशिश आमों की ऐसी है, कि तोते रोज़ आते हैं।
इसी सूरत से हम भी तुमसे मिलने रोज़ आते हैं।
तलातुम है अगर दरिया में घबराने से क्या हासिल,
हमारी ज़िन्दगी में तो ये खतरे रोज़ आते हैं।
परीशाँ क्यों हो उस कूचे में तुम अपने क़दम रखकर,
बढी है दिल की धड़कन ? ऐसे लम्हे रोज़ आते हैं।
सभी नामेहरबाँ हैं, गुल भी, मौसम भी, फ़िज़ाएं भी,
हमारे इम्तेहाँ को, कैसे-कैसे रोज़, आते हैं।
कभी ख्वाबों पे अपने गौर से सोचा नहीं मैंने,
मेरे ख्वाबों में नामानूस चेहरे रोज़ आते हैं।
कहा मैंने कि ये तोहफा मुहब्बत से मैं लाया हूँ,
कहा उसने कि ऐसे कितने तोहफ़े रोज़ आते हैं।
तुम अपने घर के दरवाज़े दरीचे सब खुले रक्खो,
कि उसके जिस्म की खुशबू के झोंके रोज़ आते हैं।
मुसीबत के दिनों में हौसलों को पस्त मत रखना,
कि इसके बाद हँसते-खिलखिलाते रोज़, आते हैं।
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