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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

बार-बार एक ही नज़्ज़ारा /खाक़ान ख़ावर

बार-बार एक ही नज़्ज़ारा न दिखलाया कर।
बात दिलकश भी अगर हो तो न दुहराया कर।
लोग गिर जाते हैं मिटटी के घरौंदों की तरह,
इस तरह बारिशे-दीदार न बरसाया कर।
पेड़ का साया नहीं, टूटा हुआ पत्ता हूँ,
मुझको जज़बात के दरया में न ठहराया कर।
टूट जाए न किसी रोज़ तेरा शीश महल,
यूँ सरे-राह न दीवानों को समझाया कर।
मेरे एहसास को इक फूल बहोत है ख़ावर,
मेरे एहसास पे यूँ संग न बरसाया कर।
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