शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008

परदेसों से चन्द परिंदे

परदेसों से, चन्द परिंदे, आये थे कुछ रोज़ हुए।
खुश होकर घर-आँगन कैसा चहके थे कुछ रोज़ हुए।
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मीठी-मीठी यादों के कुछ आवारा मजनूँ साए,
कड़वे-कड़वे सन्नाटों में चीखे थे कुछ रोज़ हुए।
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नर्म-नर्म, उजले बादल के, रूई के गालों जैसे,
जाज़िब टुकड़े, आसमान से उतरे थे कुछ रोज़ हुए।
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प्यारी-प्यारी खुशबू से था भरा-भरा माहौल बहोत,
कैसे-कैसे फूल फ़िज़ा में महके थे कुछ रोज़ हुए।
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ख्वाब हकीकत बन जाते हैं आज मुझे महसूस हुआ,
ख़्वाबों में खुशरंग मनाजिर देखे थे, कुछ रोज़ हुए।
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फिर से लोग वही तस्वीरें दिखलाने क्यों आये हैं,
अभी-अभी तो हमने धोके खाये थे कुछ रोज़ हुए।
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सोने की ये थाली लेकर सुब्ह कहांतक जायेगी,
चाँद ने जाने कैसे संदेसे भेजे थे कुछ रोज़ हुए।

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दिन ढल चुका था और.. / वज़ीर आगा

दिन ढल चुका था और परिंदा सफ़र में था।
सारा लहू बदन का रवां मुश्ते-पर में था।
हद्दे-उफ़क़ पे शाम थी खैमे में मुंतज़िर,
आंसू का इक पहाड़ सा हाइल नज़र में था।
जाते कहाँ कि रात की बाहें थीं मुश्तइल,
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था।
लो वो भी नर्म रेत के टीले में ढल गया,
कल तक जो एक कोहे-गरां रहगुज़र में था।
पागल सी इक सदा किसी उजड़े मकां में थी,
खिड़की में इक चराग भरी दोपहर में था।
उसका बदन था खून की हिद्दत से शोलावश,
सूरज का इक गुलाब सा तश्ते-सहर में था।
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दुश्मनी हिन्दी से थी

दुश्मनी हिन्दी से थी, मारे गए मासूम लोग।

कैसे इस सूबा परस्ती से न हों मगमूम लोग।

एक जानिब हैं लक़ो-दक़ खुशनुमां उम्दा मकां,

दूसरी जानिब हैं खपरैलों से भी महरूम लोग।

एक अरसे से हिरासत में हैं कितने बेगुनाह,

क्या खता थी, कर न पाये आज तक मालूम लोग।

ज़िन्दगी की तेज़गामी का नहीं देते जो साथ,

ज़िन्दगी में ही समझते हैं उन्हें मरहूम लोग।

खुदसे जितना प्यार करते हैं, करेंगे मुझसे भी,

जान लेंगे जब मेरे अशआर का मफ़हूम लोग।

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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008

वो जिसका रंग सलोना है / सादिक़ नसीम

वो जिसका रंग सलोना है बादलों की तरह।
गिरा था मेरी निगाहों पे बिजलियों की तरह।
वो रू-ब-रू हो तो शायद निगाह भी न उठे,
जो मेरी आंखों में रहता है रतजगों की तरह।
चरागे-माह के बुझने पे ये हुआ महसूस,
निखर गई मेरी शब तेरे गेसुओं की तरह।
वो आंधियां हैं कि दिल से तुम्हारी यादों के,
निशाँ भी मिट गए सहरा के रास्तों की तरह।
मेरी निगाह का अंदाज़ और है वरना,
तुम्हारी बज़्म में मैं भी हूँ दूसरों की तरह।
हरेक नज़र की रसाई नहीं कि देख सके,
हुजूम-रंग है खारों में भी गुलों की तरह।
न जाने कैसे सफ़र की है आरजू दिल में,
मैं अपने घर में पड़ा हूँ मुसाफिरों की तरह।
मैं दश्ते-दर्द हूँ यादों की नकहतों का अमीं,
हवा थमे तो महकता हूँ गुलशनों की तरह।
उसी की धुन में चटानों से सर को टकराया,
वो इक ख़याल कि नाज़ुक था आईनों की तरह।
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बुधवार, 1 अक्टूबर 2008

ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ ?

हम आप जीवन में सोंचते कुछ और हैं और होता कुछ और है. कश्मीर की दस्तकारी अपनी कलात्मकता की दृष्टि से अद्वितीय है. तारिक अहमद दर के पिता श्री गुलाम नबी दर इस व्यापर से नहीं जुड़े थे किंतु एक संपन्न परिवार की पृष्ठभूमि और कश्मीरी भाषा के एक जाने पहचाने कवि होने के रिश्ते से आस-पास के क्षेत्रों में उनकी अच्छी-खासी इज्ज़त थी. पिता की शायरी के गुल बूटे तारिक अहमद दर ने कश्मीर की हस्त कला में तलाश कर लिए और इन सुरीले नगमों को लेकर वह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक कश्मीरी कला के व्यापारी की हैसियत से घूम रहे थे. हिन्दुस्तान टाइम्स के 29 सितम्बर के अंक में छपी दर की कथा ठहर कर कुछ सोंचने के लिए विवश करती है. लगता है कि दर का स्थान कभी हम आप भी ले सकते हैं. वैसे तो मैं भाग्यवादी नहीं हूँ और मुक़द्दर की गुल्तराशियों में कभी झाँक कर नहीं देखता. तारिक अहमद दर से अगर यही सवाल पूछा जाय तो शायद वह भी मुक़द्दर की बात न करके समय और परिस्थितियों की बात करेंगे.
हुआ यूँ कि दर साहब की घुमक्कड़ प्रकृति ने व्यापार के बहाने उन्हें बांग्लादेश जाने के लिए उकसाया. यह बात आज से लगभग दो वर्ष पूर्व की है.ज़ाहिर है कि दर उस समय सत्ताईस वर्ष के एक खूबसूरत नौजवान थे. वे कश्मीरी व्यापारी ज़रूर थे किंतु उनके पासपोर्ट पर हिन्दुस्तानी होने का ठप्पा लगा था. हो सकता है उनकी आंखों से भी उनकी हिंदुस्तानियत चुगली कर रही हो. बांग्लादेशियों को उनमे एक भारतीय जासूस छुपा दिखायी दिया. बात तो सिर्फ़ देखने की है. हम आप भी किसी में कुछ भी देखने के लिए आजाद हैं. अब क्या था. 15 सितम्बर 2006 को बांगलादेशी अधिकारियों ने तारिक अहमद दर को भारतीय रिसर्च एंड अनालिसिस विंग का एजेंट घोषित करके जेल में डाल दिया. खुदा-खुदा करके किसी प्रकार चालीस दिनों के बाद आज़ादी मिली.किंतु उनके पैरों की कई नसें सुन्न पड़ चुकी थीं. कारागार और पुलिस की पूछ-ताछ का पुरस्कार तो मिलना ही था. दस्तकारियों के गट्ठर का क्या हुआ, यह बताना और भी मुश्किल है. दर साहब को हर समय महसूस होता था जैसे कोई हिन्दुस्तानी फिल्मों के मस्त मलंग बाबा की तरह कहीं नेपथ्य में गा रहा हो -"ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ.”
पेशानी पर खिंची तनाव की लकीरों से मुक्त होने के विचार से तारिक दर ने सर को हल्का सा झटका दिया औए खुली हवा के एहसास को साँसों में भरते हुए खुदा का शुक्र अदा करके वापस हिंदुस्तान लौटने के विचार से एअर-पोर्ट पहुंचे. दिल्ली तक की यात्रा अच्छी कट गई. लेकिन अब इसे क्या कहिये. लोगों ने शायद ठीक ही कहा है कि परीशानियाँ कभी अकेले नहीं आतीं. अल्लाह मियाँ के मंत्रालय का सेक्शन आफीसर परीशानियों की फाइल खोलकर बैठा ही था की किसी ज़रूरी काम से साहब ने उसे बाहर भेज दिया. अब यह फाइल बंद कौन करे.
दिल्ली एअर-पोर्ट पर भारतीय पुलिस तारिक अहमद दर की प्रतीक्षा कर रही थी. खुफिया विभाग की पुख्ता रिपोर्ट थी कि तारिक अहमद दर प्रतिबंधित लश्करे-तैयेबा से गहरा राब्ता रखते हैं. एक खतरनाक आतंकवादी घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कड़ी सुरक्षा में तिहार जेल भेज दिया गया. बांग्लादेश की ही तरह यहाँ भी उनका स्वागत-सत्कार हुआ. वह तो कहिये कि हिन्दुस्तान टाइम्स को इसकी भनक लग गई. 24 जनवरी 2007 को तारिक अहमद दर का मर्सिया छापकर अखबार ने उनके आजाद होने की कुछ संभावनाएं बनायीं. आशाओं की खिड़कियाँ खुलने लगीं. और अंत में चीफ मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट सीमा मैनी ने उन्हें आजाद करते हुए कहा-" मैं अपने आपको यह महसूस करने से नहीं रोक पा रही हूँ कि यह कितनी विडम्बनापूर्ण और दुखद स्थिति है कि एक भारतीय नागरिक को नववे दिनों तक कारागार में रखा गया जो किसी भी बेगुनाह के लिए आजीवन कारावास से कम नहीं है."
तारिक अहमद दर तिहार जेल से मुक्त ज़रूर हो गए किंतु ढेर सारे प्रश्नों की एकमुखी रुद्राक्ष उनके गले में आज भी लटकी हुई है जो समय-असमय सतर्क करती रहती है. हस्त-शिल्प के व्यापार से सम्बद्ध जब वह किसी भी यात्रा पर निकलते हैं तो सुरक्षा-कवच के रूप में अखबारों की कटिंग और मजिस्ट्रेट के आदेश की पक्की नक़ल अपने साथ रखना नहीं भूलते. जब भी कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है उनके दोनों हाथ यंत्रवत आसमान की ओर उठ जाते हैं-" या अल्लाह ! मेरे दिल की धड़कनें रुक सी गई हैं. मैं अपनी आँखें बंद करके तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि कहीं वह मेरी ही तरह का एक इंसान न हो."
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मंगलवार, 30 सितंबर 2008

करतब कमाल का था

करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।

बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।

सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,

फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।

नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,

नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।

दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,

दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।

किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,

ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।

क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,

वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।

परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,

परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।

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दिल के सहरा में / नूर बिजनौरी

दिल के सहरा में कोई आस का जुगनू भी नहीं।
इतना रोया हूँ कि अब आँख में आंसू भी नहीं।
इतनी बेरहम न थी ज़ीस्त की दोपह्र कभी,
इन खराबों में कोई सायए-गेसू भी नहीं।
कासए-दर्द लिए फिरती है गुलशन की हवा,
मेरे दामन में तेरे प्यार की खुशबू भी नहीं।
छिन गया मेरी निगाहों से भी एहसासे-जमाल,
तेरी तस्वीर में पहला सा वो जादू भी नहीं।
मौज-दर-मौज तेरे गम की शफ़क़ खिलती है,
मुझको इस सिलसिलाए-रंग पे काबू भी नहीं।
दिल वो कम्बख्त कि धड़के ही चला जाता है,
ये अलग बात कि तू ज़ीनते-पहलू भी नहीं।
हादसा ये भी गुज़रता है मेर जाँ हम पर,
पैकरे-संग हैं दो, मैं भी नहीं, तू भी नहीं।
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सोमवार, 29 सितंबर 2008

सोंच और विचार

एक जैसी सोंच के बावजूद
कितने भिन्न हैं मेरे और उसके विचार!
उसे मेरे शब्दों में आक्रोश की झलक मिलती है,
हो सकता है वह ठीक हो,
हो सकता है मेरा आहत मन
उसे न छू सका हो.
और यह भी हो सकता है,
कि मैंने ही उसे गलत समझा हो,
ग़लत सन्दर्भों में रखकर देखा हो.
किंतु, सोंचता हूँ मैं-
कि जहाँ-जहाँ मेरा मन आहत होता है,
उसका क्यों नहीं होता ?
वह भी तो मेरी ही तरह सोंचता है।
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कहीं तुम अपनी किस्मत / सलीम कौसर

कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते।
तो शायद हम भी अपना रास्ता तब्दील कर लेते।
अगर हम वाकई कम हौसला होते मुहब्बत में,
मरज़ बढ़ने से पहले ही दवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारे साथ चलने पर जो दिल राज़ी नहीं होता,
बहोत पहले हम अपना फैसला तब्दील कर लेते।
तुम्हें इन मौसमों की क्या ख़बर मिलती अगर हम भी,
घुटन के खौफ से आबो-हवा तब्दील कर लेते।
तुम्हारी तर्ह जीने का हुनर आता तो फिर शायद,
मकान अपना वही रखते, पता तब्दील कर लेते।
जुदाई भी न होती ज़िन्दगी भी सहल हो जाती,
जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते।
हमेशा की तरह इस बार भी हम बोल उठे, वरना,
गवाही देने वाले वाक़या तब्दील कर लेते।
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रविवार, 28 सितंबर 2008

प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के वक्तव्य पर इतनी बेचैनी क्यों ?

जामिया मिल्लिया के कुलपति प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन अभी कल तक हिन्दी मिडिया की दृष्टि में प्रगतिशील भी थे और राष्ट्रवादी भी, किंतु बटला हाउस से जामिया के दो छात्रों की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने जो वक्तव्य दिया उसकी प्रतिक्रिया हिन्दी मीडिया और हिन्दी ब्लॉग-जगत में खासी तीखी हुई. कुछ राष्ट्रवादी महानुभावों ने कुलपति पद से उनके हटाये जाने तक की मांग कर ली। राष्ट्रीय सोंच की प्रकृति भी यही है। व्यक्ति को उसके कृत्य से नहीं, वक्तव्य से परखना चाहिए. जामिया के वे छात्र जो गिरफ्तार किए गए हैं, यदि उन्हें आतंकवादी गतिविधियों में भागीदारी करते रंगे हाथों पकड़ा गया होता तो स्थिति दूसरी होती. केवल संदेह के आधार पर बटला हाउस पर दबिश डाली गई और तथाकथित मुठभेड़ के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया. अंग्रेज़ी अखबारों में इन छात्रों के सम्बन्ध में जो सूचनाएं छपी हैं और मुठभेड़ की कथा को जिस प्रकार संदेह के घेरे में रखकर देखा जा रहा है, उससे कुछ और ही तस्वीर उभरती है. जामिया के छात्रों ने स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया और जनवादी महिला समिति की ओर से बांटे गए पर्चों पर जब वैचारिक आदान-प्रदान किए और संदर्भित अंसल प्लाजा के और गुजरात के सोहराबुद्दीन के नाटकीय मुठभेडों का उल्लेख किया और पुलिस की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगाए तो दिल्ली के हिन्दी समाचार-पत्रों को यह गडे मुर्दे उखाड़ने जैसा प्रतीत हुआ.
बात स्पष्ट है कि मुसलामानों को चाहे वह कितने ही प्रगतिशील और राष्ट्रवादी क्यों न हों, अपने निकट अतीत की भी पीडाएं दुहराने का कोई अधिकार नहीं है. यह अधिकार केवल बहुसंख्यक वर्ग का है जो मध्ययुगीन इतिहास से समय-समय पर गडे मुर्दे उखाड़कर वितंडावाद खड़े कर सकता है. मुसलमानों की भलाई चुप रहने में ही है. भले ही यह चुप्पी बर्दाश्त के बाहर होकर फट पड़े और नादान हाथों में पड़कर दहशत गर्दी की शक्ल अख्तियार कर ले. हिंदी मीडिया की यह सोंच स्थितियों को क्या से क्या बनाती जा रही है, इसपर कभी ठंडे मन से विचार किया जा सकता है.
तेरह सितम्बर को हुए पाँच धमानकों के बाद एक धमाका सत्ताईस सितम्बर को मेहरौली के फूल बाज़ार में हुआ जिसमें दो जाने चली गयीं और अट्ठारह लोग ज़ख्मी भी हुए. इस धमाके की चेतावनी छब्बीस सितम्बर की शाम को पुलिस को मोबाइल द्बारा प्राप्त हो चुकी थी. छान-बीन करने पर यह मोबाइल किन्ही रमेश जी( १ ) का पाया गया इस लिए जांच आगे बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था. टीवी चैनलों की भी इसमें विशेष रूचि नहीं थी. खबरों की मार्केटिंग में केवल रोचक सामग्री ही जनमानस को आकृष्ट कर सकती है. और सामग्री का रोचक होना जनता के रुझान से सम्बद्ध है जिसे टीवी चैनल अच्छी तरह जानते हैं.
हिन्दी मीडिया को आश्चर्य है की प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने जन रूचि को ध्यान में रखते हुए बयान क्यों नहीं दिया ? क्यों नहीं कह दिया कि बटला हाउस से पकड़े गए छात्रों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए ? हिन्दी चैनलों की दृष्टि में मुलजिम और मुजरिम में कोई अन्तर नहीं होता. अब अपराधी और आरोपी का अन्तर स्पष्ट करना मूर्खता नहीं है तो और क्या है. प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कह दिया कि पकडे गए छात्र दिल्ली पुलिस की दृष्टि में संदेह के घेरे में हो सकते हैं, किंतु वे दहशतगर्द नहीं हैं. जब तक न्यायलय उनका अपराध घोषित न करदे उनकी स्थिति एक आम शहरी की है और जामिया हर स्थिति में उनके बचाव का मुक़दमा लडेगी. सिद्धांततः मुशीर साहब की बात कितनी ही सही क्यों न हो, किंतु आम रुझान ऐसा नहीं है. अभी हाल ही में अरुशी हत्या काण्ड के मामले में अरुशी के पिता की गिरफ्तारी के बाद मीडिया ने उन्हें और उनकी बेटी को किन-किन शब्दों से अलंकृत किया और उनकी कैसी तस्वीर खड़ी की यह सभी को मालूम है. फिर आतंकवाद के आरोपियों को कैसे बख्शा जा सकता है या उनके प्रति कोई सहानुभूति कैसे जताई जा सकती है. अडवानी और मोदी जैसे लोग यदि कुछ मामलों में आरोपी हैं तो उनकी बात और है. हिन्दी मीडिया के बीच उनकी एक छवि है और उनका नाम उसी छवि के अनुरूप आदरपूर्वक लिया जायगा. वे न तो अरुशी के पिता हैं और न ही आतंकवाद के आरोपी.
सत्ताईस सितम्बर को हुए धमाके में आतंकवादियों को सबने भरे बाज़ार के बीच से मोटर सायकिल पर जाते देखा, नौ वर्षीय बच्चे को उनके पीछे दौड़ते देखा, किंतु किसी भी व्यक्ति ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उनका पीछा नहीं किया , उन्हें पकड़ने का प्रयास नहीं किया और दिल्ली की चौकस पुलिस तो घटना घटित होने के डेढ़ घंटे बाद आई. हिन्दी मीडिया पुलिस में कोई दोष नहीं देखता. कम-से-कम आतंकवाद के मामले में पुलिस की कारगुजारी प्रशंसनीय ही बतायी जाती है. बात भी ठीक है.पुलिस का प्रोत्साहन ज़रूरी है.
प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने तो अभिभावक होने के रिश्ते से पकड़े गए छात्रों की इस मुसीबत की घड़ी में कानूनी तथा आर्थिक सहायता देने की ही बात की, अर्जुन सिंह ने उन्हें इसकी अनुमति भी दे दी और अशोक वाजपेयी जैसे समझदार व्यक्ति ने प्रोफेसर हसन का खुलकर समर्थन भी कर दिया. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील और जनहस्तक्षेप टीम के सदस्य प्रशांत भूषण ने घटनास्थल को अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखने के बाद पुलिस इनकाउन्टर की पूरी कथा में ही अनेक सूराख देख डाले और सर्वोच्च न्यायालय के एक सीटिंग जज द्वारा इसकी जांच की मांग भी कर ली. अब आप ही बताइये यह सब बातें बेचैन करने की हैं या नहीं. हिन्दी मीडिया जो अपने मार्केट से कहीं अधिक राष्ट्र हित की बात सोचता है, प्रोफेसर मुशीरुल हसन और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वालों की बातें सुन-सुन कर बेचैन न हो तो क्या करे ?
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टिप्पणी : ( १ ) टीवी के सभी न्यूज़ चैनलों पर यही नाम बताया गया था. किंतु आज पहली अक्तूबर के हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार इस व्यक्ति का नाम नानकचंद जाटव है और यह खंदेहो, टप्पल जनपद अलीगढ का रहने वाला है. इस व्यक्ति ने नया सिम कार्ड जिससे फोन किया गया था, बल्लभगढ़ से अपने वोटर कार्ड के आधार पर खरीदा था.