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रविवार, 28 सितंबर 2008

प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के वक्तव्य पर इतनी बेचैनी क्यों ?

जामिया मिल्लिया के कुलपति प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन अभी कल तक हिन्दी मिडिया की दृष्टि में प्रगतिशील भी थे और राष्ट्रवादी भी, किंतु बटला हाउस से जामिया के दो छात्रों की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने जो वक्तव्य दिया उसकी प्रतिक्रिया हिन्दी मीडिया और हिन्दी ब्लॉग-जगत में खासी तीखी हुई. कुछ राष्ट्रवादी महानुभावों ने कुलपति पद से उनके हटाये जाने तक की मांग कर ली। राष्ट्रीय सोंच की प्रकृति भी यही है। व्यक्ति को उसके कृत्य से नहीं, वक्तव्य से परखना चाहिए. जामिया के वे छात्र जो गिरफ्तार किए गए हैं, यदि उन्हें आतंकवादी गतिविधियों में भागीदारी करते रंगे हाथों पकड़ा गया होता तो स्थिति दूसरी होती. केवल संदेह के आधार पर बटला हाउस पर दबिश डाली गई और तथाकथित मुठभेड़ के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया. अंग्रेज़ी अखबारों में इन छात्रों के सम्बन्ध में जो सूचनाएं छपी हैं और मुठभेड़ की कथा को जिस प्रकार संदेह के घेरे में रखकर देखा जा रहा है, उससे कुछ और ही तस्वीर उभरती है. जामिया के छात्रों ने स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया और जनवादी महिला समिति की ओर से बांटे गए पर्चों पर जब वैचारिक आदान-प्रदान किए और संदर्भित अंसल प्लाजा के और गुजरात के सोहराबुद्दीन के नाटकीय मुठभेडों का उल्लेख किया और पुलिस की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगाए तो दिल्ली के हिन्दी समाचार-पत्रों को यह गडे मुर्दे उखाड़ने जैसा प्रतीत हुआ.
बात स्पष्ट है कि मुसलामानों को चाहे वह कितने ही प्रगतिशील और राष्ट्रवादी क्यों न हों, अपने निकट अतीत की भी पीडाएं दुहराने का कोई अधिकार नहीं है. यह अधिकार केवल बहुसंख्यक वर्ग का है जो मध्ययुगीन इतिहास से समय-समय पर गडे मुर्दे उखाड़कर वितंडावाद खड़े कर सकता है. मुसलमानों की भलाई चुप रहने में ही है. भले ही यह चुप्पी बर्दाश्त के बाहर होकर फट पड़े और नादान हाथों में पड़कर दहशत गर्दी की शक्ल अख्तियार कर ले. हिंदी मीडिया की यह सोंच स्थितियों को क्या से क्या बनाती जा रही है, इसपर कभी ठंडे मन से विचार किया जा सकता है.
तेरह सितम्बर को हुए पाँच धमानकों के बाद एक धमाका सत्ताईस सितम्बर को मेहरौली के फूल बाज़ार में हुआ जिसमें दो जाने चली गयीं और अट्ठारह लोग ज़ख्मी भी हुए. इस धमाके की चेतावनी छब्बीस सितम्बर की शाम को पुलिस को मोबाइल द्बारा प्राप्त हो चुकी थी. छान-बीन करने पर यह मोबाइल किन्ही रमेश जी( १ ) का पाया गया इस लिए जांच आगे बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं था. टीवी चैनलों की भी इसमें विशेष रूचि नहीं थी. खबरों की मार्केटिंग में केवल रोचक सामग्री ही जनमानस को आकृष्ट कर सकती है. और सामग्री का रोचक होना जनता के रुझान से सम्बद्ध है जिसे टीवी चैनल अच्छी तरह जानते हैं.
हिन्दी मीडिया को आश्चर्य है की प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने जन रूचि को ध्यान में रखते हुए बयान क्यों नहीं दिया ? क्यों नहीं कह दिया कि बटला हाउस से पकड़े गए छात्रों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए ? हिन्दी चैनलों की दृष्टि में मुलजिम और मुजरिम में कोई अन्तर नहीं होता. अब अपराधी और आरोपी का अन्तर स्पष्ट करना मूर्खता नहीं है तो और क्या है. प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कह दिया कि पकडे गए छात्र दिल्ली पुलिस की दृष्टि में संदेह के घेरे में हो सकते हैं, किंतु वे दहशतगर्द नहीं हैं. जब तक न्यायलय उनका अपराध घोषित न करदे उनकी स्थिति एक आम शहरी की है और जामिया हर स्थिति में उनके बचाव का मुक़दमा लडेगी. सिद्धांततः मुशीर साहब की बात कितनी ही सही क्यों न हो, किंतु आम रुझान ऐसा नहीं है. अभी हाल ही में अरुशी हत्या काण्ड के मामले में अरुशी के पिता की गिरफ्तारी के बाद मीडिया ने उन्हें और उनकी बेटी को किन-किन शब्दों से अलंकृत किया और उनकी कैसी तस्वीर खड़ी की यह सभी को मालूम है. फिर आतंकवाद के आरोपियों को कैसे बख्शा जा सकता है या उनके प्रति कोई सहानुभूति कैसे जताई जा सकती है. अडवानी और मोदी जैसे लोग यदि कुछ मामलों में आरोपी हैं तो उनकी बात और है. हिन्दी मीडिया के बीच उनकी एक छवि है और उनका नाम उसी छवि के अनुरूप आदरपूर्वक लिया जायगा. वे न तो अरुशी के पिता हैं और न ही आतंकवाद के आरोपी.
सत्ताईस सितम्बर को हुए धमाके में आतंकवादियों को सबने भरे बाज़ार के बीच से मोटर सायकिल पर जाते देखा, नौ वर्षीय बच्चे को उनके पीछे दौड़ते देखा, किंतु किसी भी व्यक्ति ने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उनका पीछा नहीं किया , उन्हें पकड़ने का प्रयास नहीं किया और दिल्ली की चौकस पुलिस तो घटना घटित होने के डेढ़ घंटे बाद आई. हिन्दी मीडिया पुलिस में कोई दोष नहीं देखता. कम-से-कम आतंकवाद के मामले में पुलिस की कारगुजारी प्रशंसनीय ही बतायी जाती है. बात भी ठीक है.पुलिस का प्रोत्साहन ज़रूरी है.
प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने तो अभिभावक होने के रिश्ते से पकड़े गए छात्रों की इस मुसीबत की घड़ी में कानूनी तथा आर्थिक सहायता देने की ही बात की, अर्जुन सिंह ने उन्हें इसकी अनुमति भी दे दी और अशोक वाजपेयी जैसे समझदार व्यक्ति ने प्रोफेसर हसन का खुलकर समर्थन भी कर दिया. इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील और जनहस्तक्षेप टीम के सदस्य प्रशांत भूषण ने घटनास्थल को अच्छी तरह ठोक-बजाकर देखने के बाद पुलिस इनकाउन्टर की पूरी कथा में ही अनेक सूराख देख डाले और सर्वोच्च न्यायालय के एक सीटिंग जज द्वारा इसकी जांच की मांग भी कर ली. अब आप ही बताइये यह सब बातें बेचैन करने की हैं या नहीं. हिन्दी मीडिया जो अपने मार्केट से कहीं अधिक राष्ट्र हित की बात सोचता है, प्रोफेसर मुशीरुल हसन और उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वालों की बातें सुन-सुन कर बेचैन न हो तो क्या करे ?
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टिप्पणी : ( १ ) टीवी के सभी न्यूज़ चैनलों पर यही नाम बताया गया था. किंतु आज पहली अक्तूबर के हिंदुस्तान टाइम्स के अनुसार इस व्यक्ति का नाम नानकचंद जाटव है और यह खंदेहो, टप्पल जनपद अलीगढ का रहने वाला है. इस व्यक्ति ने नया सिम कार्ड जिससे फोन किया गया था, बल्लभगढ़ से अपने वोटर कार्ड के आधार पर खरीदा था.