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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

वो जिसका रंग सलोना है / सादिक़ नसीम

वो जिसका रंग सलोना है बादलों की तरह।
गिरा था मेरी निगाहों पे बिजलियों की तरह।
वो रू-ब-रू हो तो शायद निगाह भी न उठे,
जो मेरी आंखों में रहता है रतजगों की तरह।
चरागे-माह के बुझने पे ये हुआ महसूस,
निखर गई मेरी शब तेरे गेसुओं की तरह।
वो आंधियां हैं कि दिल से तुम्हारी यादों के,
निशाँ भी मिट गए सहरा के रास्तों की तरह।
मेरी निगाह का अंदाज़ और है वरना,
तुम्हारी बज़्म में मैं भी हूँ दूसरों की तरह।
हरेक नज़र की रसाई नहीं कि देख सके,
हुजूम-रंग है खारों में भी गुलों की तरह।
न जाने कैसे सफ़र की है आरजू दिल में,
मैं अपने घर में पड़ा हूँ मुसाफिरों की तरह।
मैं दश्ते-दर्द हूँ यादों की नकहतों का अमीं,
हवा थमे तो महकता हूँ गुलशनों की तरह।
उसी की धुन में चटानों से सर को टकराया,
वो इक ख़याल कि नाज़ुक था आईनों की तरह।
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