ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / परदेसों से चन्द परिंदे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / परदेसों से चन्द परिंदे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

परदेसों से चन्द परिंदे

परदेसों से, चन्द परिंदे, आये थे कुछ रोज़ हुए।
खुश होकर घर-आँगन कैसा चहके थे कुछ रोज़ हुए।
*****
मीठी-मीठी यादों के कुछ आवारा मजनूँ साए,
कड़वे-कड़वे सन्नाटों में चीखे थे कुछ रोज़ हुए।
*****
नर्म-नर्म, उजले बादल के, रूई के गालों जैसे,
जाज़िब टुकड़े, आसमान से उतरे थे कुछ रोज़ हुए।
*****
प्यारी-प्यारी खुशबू से था भरा-भरा माहौल बहोत,
कैसे-कैसे फूल फ़िज़ा में महके थे कुछ रोज़ हुए।
*****
ख्वाब हकीकत बन जाते हैं आज मुझे महसूस हुआ,
ख़्वाबों में खुशरंग मनाजिर देखे थे, कुछ रोज़ हुए।
*****
फिर से लोग वही तस्वीरें दिखलाने क्यों आये हैं,
अभी-अभी तो हमने धोके खाये थे कुछ रोज़ हुए।
*****
सोने की ये थाली लेकर सुब्ह कहांतक जायेगी,
चाँद ने जाने कैसे संदेसे भेजे थे कुछ रोज़ हुए।

******************