सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।

वो दश्ते शोरिशे-ग़म में भटक रहा था कहीं।
दिलो-नज़र में कोई ताज़ा हादसा था कहीं।
मैं अपने कमरे में तारीकियाँ भी कर न सका,
कि चाँद बंद दरीचे से झांकता था कहीं।
नज़र मिलाने से कतरा रहा था महफ़िल में,
कि उसके सीने में कुछ दर्द सा छुपा था कहीं।
किताबे-दिल को मैं तरतीब दे नहीं पाया,
वरक़, कि जिसमें था सब कुछ, वो लापता था कहीं।
मैं अपने घर को ही पहचानने से क़ासिर था,
कि मेरी यादों का सरमाया खो चुका था कहीं।
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2 टिप्‍पणियां:

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

किताबे-दिल को मैं तरतीब दे नहीं पाया,


वरक़, कि जिसमें था सब कुछ, वो लापता था कहीं।

बहुत ख़ूब...

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया!!अच्छा लिखा है।

मैं अपने घर को ही पहचानने से क़ासिर था,

कि मेरी यादों का सरमाया खो चुका था कहीं।