फ़स्ल खेतों में जलाकर, खुश हुए दुश्मन बहोत।
हादसा दिल पर वो गुज़रा, बढ़ गई उलझन बहोत।
रास आएगी तुझे हरगिज़ न ये आवारगी,
ज़िन्दगी ! तेरे लिए हैं तेरे घर-आँगन बहोत।
मेरे मज़हब के अलावा सारे मज़हब हैं ग़लत,
सोचते हैं आज इस सूरत से मर्दों-ज़न बहोत।
बर्क किस-किस पर गिराओगे, मैं तनहा तो नहीं,
हक़ पसंदों के हैं मेरे मुल्क में खिरमन बहोत।
खून की रंगत किसी तफ़रीक़ की क़ायल नहीं,
आदमी है एक, हाँ उसके हैं पैराहन बहोत।
आम के बागों में कजली की धुनें, झूलों की पेंग,
याद आता है मुझे क्यों गाँव का सावन बहोत।
मुफलिसी के बाद भी इज्ज़त पे आंच आई नहीं,
शुक्र है हर हाल में सिमटा रहा दामन बहोत।
वैसे तो परदेस में भी मैं बहोत खुश हाल था,
जब भी घर लौटा हुआ महसूस अपनापन बहोत।
*********************
Sunday, October 5, 2008
फ़स्ल खेतों में जलाकर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
बहुत बेहतरीन है!
बहुत उम्दा किस्म के शेरों के लिये आपकी बधाई...
आपकी सोंच आपकी कहन अच्छी लगी
वीनस केसरी
Post a Comment