रविवार, 1 जून 2008

पुरानी शराब / मीर तकी मीर की ग़ज़लें

परिचय
मीर तकी मीर का जन्म आगरे में 1723 ई0 में हुआ. उस समय तक उर्दू शायरी अपनी किशोरावस्था में थी. पिता की देख-रेख में शिक्षा पाकर मीर ने इश्क के बारीक रहस्यों को समझा और उसके परिष्कृत मूल्यों को अन्तःकीलित किया जो आगे चलकर उनकी गजलों में इस प्रकार मुखर हुआ कि उनकी शायरी की आतंरिक ऊर्जा बन गया. मीर सही अर्थों में उर्दू ग़ज़ल के अद्भुत शिल्पकार हैं. गालिब को भी उनकी कला का लोहा मानना पड़ा. उनके शेरों में ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभव और दुःख-दर्द की लयात्मकता कुछ यूं रची-बसी मिलती है कि पाठक उसके साथ अंतरंग हुए बिना नहीं रह पाता. मीर के समय तक शायरी की भाष के लिए 'उर्दू' शब्द प्रयोग में नहीं आया था. यह स्थिति ग़ालिब के समय तक बनी हुई थी. वे अपनी उर्दू गजलों को हिन्दी का नाम देते थे और स्वयम को मीर की भाँति रेखता का उस्ताद समझते थे. 'अवधी' और 'ब्रज' के कवि अपनी भाषा को 'भाखा' कहते थे. हाँ ब्रज और अवधी के मुसलमान कवि इसके लिए 'हिन्दवी' या 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करते थे. इसीलिए मीर की कविता में हिन्दोस्तानियत का जो सोंधापन है वह अन्य उर्दू कवियों में उतना नहीं झलकता. मीर के छे दीवान उपलब्ध है जिनमे उनके शेरों की संख्या 13585 है.
[ १ ]
इब्तिदाए-इश्क है रोता है क्या
आगे-आगे देखिए होता है क्या
काफ्ले में सुबह के इक शोर है
यानी गाफिल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख्मे-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशाने-इश्क हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
गैरते-यूसुफ है ये वक्ते-अजीज़
मीर इसको राएगाँ खोता है क्या
[ 2 ]
फकीराना आये सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
कोई नाउमीदाना करते नागाह
सो तुम हमसे मुंह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरे
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूं के बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सिज्दा करते ही करते गई
हके-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की यांतइं , के ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की खुदा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हमसे मीर
जहाँ में तुम आये थे क्या कर चले
[ 3 ]
क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़
इश्क़ - इश्क़ है जहाँ देखो
सारे आलम में भर रहा है इश्क़
इश्क़ माशूक, इश्क़ आशिक है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़
इश्क़ है तर्ज़ो-तौर इश्क़ के तइं
कहीं बन्दा कहीं खुदा है इश्क़
कौन मकसद को इश्क़ बिन पहोंचा
आरजू इश्क़-ओ-मुद्दआ है इश्क़
कोई ख्वाहाँ नही महब्बत का
तू कहे जिंस-नारवा है इश्क़
मीर जी ज़र्द होते जाते हैं
क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़
[ 5 ]
पत्ता - पत्ता बूटा - बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने, गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
आगे उस मुतकब्बिर के, हम खुदा खुदा क्या करते हैं
कब मौजूद खुदा को, वो मगरूर,खुदारा जाने है
आशिक सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके, अपना वारा जाने है
चारा-गरी बीमारिए-दिल की, रस्मे-शहरे-हुस्न नहीं
वरना दिल्बरे-नादाँ भी, इस दर्द का चारा जाने है
मेह्रो-वफाओ-लुत्फो-इनायत, एक से वाकिफ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्जो-कनाया, रम्जो-इशारा जाने है
तश्ने-खूं है अपना कितना, मीर भी नादाँ, तल्खी-कश
दमदार आबे-तेग को उसके, आबे-गवारा जाने है
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1 टिप्पणी:

दीपक ने कहा…

मीर जी कि नज्मे पढाने के लिये धन्यवाद