शनिवार, 10 मई 2008

एक जापानी कविता

परिचय
हिरोशी कावासाकी (1930-2004) का जन्म टोकियो में हुआ. उन्होंने बड़ी संख्या में कविताएँ, कहानियाँ, निबंध, रेडियो नाटक इत्यादि लिखे. उनकी अधिकांश कविताएं प्रकृति के प्रति उनके गहरे जुडाव को दर्शाती हैं. 1953 में उन्होंने नोरिको इबारागी के साथ मिलकर 'काई' (KAI) नामक एक कविता-पत्रिका निकाली. इस पत्रिका से शुन्तारो तनिकावा और मकातो ऊका सहित अनेक कवि जुड़ते चले गए. अंग्रेज़ी भाषा में हिरोशी कावासाकी के अनेक काव्य-संग्रह उपलब्ध हैं.
[ 1 ] सुबह / हिरोशी कावासाकी
सुबह के प्रकाश में
दौड़ रही है एक लड़की मेरी ओर
उसके शानदार केश
सूर्य के प्रकाश में घुल कर
चौंधिया रहे हैं मुझे.

उसके हाथ, उसके जूते, उसकी स्कर्ट, उसका शरीर
सभी घुल गए हैं सूर्य के प्रकाश में
और हो गए हैं पारदर्शी
जैसे कि वह लड़की जो
दौड़ रही है मेरी ओर.

दाखिल हो जाता है सूर्य का प्रकाश
घने हरे जंगल में सुबह-सवेरे
हरी हो जाती है वह लड़की
वृक्षों की फुनगियाँ आपस में फुसफुसाती हैं
जैसे सुन ली हो उन्होंने अपनी मातृभाषा
सुबह-सुबह
विदेश की धरती पर.

लड़की जाती है सुबह-सुबह घास के मैदान में
जहाँ एक जोड़ी क्रीमी रंगत वाले घोडे
चर रहे हैं ओस की बूंदों से ढकी घास
चकित रह जाती है वह लड़की
यह देख कर
कि क्रीमी रंगत वाले घोडों के
पेट के नीचे की घास
किस प्रकार बदल जाती है क्रीमी रंगत में.

जिज्ञासा और आश्चर्य भरी लड़की
आ जाती है फलों के बाग़ में
जहाँ सेब पकने के लिए तैयार हैं
और बस गयी है उनकी स्थायी खुश्बू
हवा की नमी में
एक सफ़ेद कमरे में वह लड़की
भर जाती है उस खुश्बू से
कब से, कोई नहीं जानता
कहाँ से, कोई नहीं जानता
उभरता है एक लाल रंग
स्वस्थ हो उठती है लाल चमडी
बाग़ के सेब
फट पड़ने से रोके हुए हैं स्वयम को
उस चमकते प्रकाश में.
लड़की दौड़ रही है और निरंतर दौड़ रही है
बर्फ टूट रही है,
हवा में तेज़ी आ गई है
जाग गई हैं गिलहरियाँ.

वह लड़की आती है मेरे कमरे में
जहाँ मैं सो रहा हूँ सुबह की रोशनी में
मेरे दिमाग को एक तौलिये की तरह
रंग दिया गया है कई रंगों में
किसी समय
कोड़े से लगते हैं मेरे स्वप्न में
बौखला जाते हैं -मैं और वह लड़की

क्या मैं सुन रहा हूँ
धरती से ऊपर आते पानी की आवाज़
क्या मैं देख रहा हूँ
समय कितनी तेज़ी से खिसक रहा है

लड़की और मैं
कोमलता के साथ निकल जाते हें
स्वप्नों के उस पार
धीरे-धीरे लड़की मुरझा जाती है
धीरे-धीरे मैं हो जाता हूँ संतुष्ट
और शीघ्र ही देखता हूँ मैं
सामने चमकता हुआ सूरज.

***************
अनुवाद एवं प्रस्तुति : शैलेश जैदी

शुक्रवार, 9 मई 2008

कोरियाई कवि कू सांग' की दो कविताएं


परिचय


कू सांग ( 1919-2004 ) का जन्म सिउल (seoul ) में हुआ था. जब वह छोटा था उसका पूरा परिवार उत्तरी-पूर्वी शहर वानसन ( wonsan ) में आ गया था जहाँ वह बड़ा हुआ. उत्तरी कोरिया में उसने एक पत्रकार और लेखक के रूप में ख्याति अर्जित की. किंतु 1945 में वह दक्षिण में जाने के लिए बाध्य हो गया. कारण यह था की उसने कम्युनिस्ट आदर्शों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया. उसकी कविता परिष्कृत प्रतीकात्मकता और कृत्रिम अभिव्यंजना को स्वीकार नहीं करती. वह उन पाठको के मध्य अत्यधिक लोकप्रिय रहा जो ज़िंदगी को उसके अनिवार्य अर्थों में देखने के इच्छुक हैं. सरलता और सहजता उसके काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है.


[ 1 ] नया वर्ष


क्या जिस किसी ने भी देखा नया वर्ष


और उसकी नई सुबह


अपनी ही आंखों से नहीं देखा ?
मरे लिए है यह रहस्य का स्रोत


कि तुम स्वयं प्रदूषित कर देते हो प्रत्येक दिन


और उसे बदल देते हो काले जट कूड़ा-करकट में


क्या हर किसी ने नहीं देखा कबाडे जैसा दिन


और चीथडा बनी घडियाँ ?
यदि तुम स्वयं नहीं बनते नये


तुम नहीं कर सकते स्वागत नयी सुबह का


नये की तरह


जान लो, तुम कभी नहीं कर पाओगे स्वागत


नये दिन का नये की तरह.
यदि तुम्हारे ह्रदय की सरलता


एक बार भी पुष्पित हो जाय


तुम जी सकोगे नये वर्ष को नये की तरह.



[ 2 ] बडों की दुनिया


मत उड़ाओ मेरा मजाक़ और मत पूछो


कि तुम इतना क्यों डूबे रहते हो विचारों में ?


यह प्रश्न तुम्हारे जैसों को शोभा नहीं देता.
कारण जानना चाहते हो तो सुनो


मैं सदमा-ग्रस्त और गूंगा हो गया हूँ


और एकदम मौन,


शब्दों के खो जाने की वजह से.
यह सच है, बिल्कुल सच


कि आप वयस्क लोग जिसे ज़िंदगी कहते हैं,


वह अटी पड़ी है ऊपर से नीचे तक झूठ से.
आप न्याय की गुहार लगाते हैं


जबकि स्वयं आपका व्यवहार अन्याय पूर्ण होता है,


आपके होंठों पर प्यार की बातें होती हैं


जबकि घृणा करते हैं आप एक दूसरे से


आप शांति की वकालत करते हैं


जबकि आप आपस में लड़ते हैं


और जानें लेते हैं एक दूसरे की.
मुझे भय है कि मैं बहुत रूखा हो गया हूँ


किंतु, जैसा कि किसी अन्य ने कहा है -
जबतक कि तुम दुबारा


एक बच्चे का ह्रदय न प्राप्त कर लो


तुम नहीं प्रवेश कर सकते स्वर्ग की बादशाहत में


ठीक उसी प्रकार


यदि तुम दुबारा नहीं प्राप्त कर लेते बच्चे का ह्रदय


तुम नहीं निकल सकते


अपनी झूठी दुनिया के उस घेरे से


जो धंसाता चला जाता है तुम्हेंअपने भीतर.


*************


अनुवाद एवं प्रस्तुति : शैलेश जैदी

गुरुवार, 8 मई 2008

चीनी कवि हान डांग की दो कविताएं

परिचय
चीन की साहित्यिक विधाओं में जो सम्मान और लोकप्रियता कविता को प्राप्त है वह अन्य किसी विधा को नहीं है. परंपरागत रूप से चीनी कविता 'शी', 'सी' और 'कू' नामों से अपनी पहचान रखती है. वैसे गद्य कविता का भी प्रचलन है जिसे फू कहते हैं. और अब तो मुक्त छंद की प्रवृत्ति भी पर्याप्त प्रचलन में है. हाँ परंपरागत कवितायेँ छन्दबद्ध और लयात्मक हैं. शी जिंग प्रथम क्लासिकी काव्य है जो किन शीहुआंग द्वारा पुस्तकों को जलवा दिए जाने के बाद बचा रह गया. इसमें अधिकतर प्रशस्ति कवितायेँ और लोक गीत हैं दूसरा अपेक्षाकृत अधिक लयात्मक काव्य चू सी है अर्थात चू के गीत.हान शासन काल में और उसके बाद शी काव्य की ही भांति युए फू (संगीत संस्थान ) का विकास हुआ. यह पाँच या सात पंक्तियों पर आधारित छंदों वाली कवितायेँ थीं जो आधुनिक काल तक लोकप्रिय रहीं चीन की आधुनिक कविता किसी विशेष पैटर्न का अनुकरण नहीं करती चीन के समकालीन कवियों में चेन डोंग डोंग, हान बो, हान डोंग, मो फेई, यांग जियान इत्यादी विशेष उल्लेख्य है.
[1] शोर
कुछ टूटने-टकराने का एक शोर
मैं बाहर निकला
देखा मैं ने चारों ओर
कुछ भी तो नहीं था.

और फिर एक घंटे बाद
मैं जब किचेन में गया
मैं ने देखा कि कटिंग बोर्ड नीचे गिरा हुआ है
और चारों ओर बिखरी हैं शीशे की किरचें
सब कुछ मौन है - स्तब्ध, चेतना शून्य
कटिंग बोर्ड भी और शीशे की किरचें भी
सब कुछ शान्त

अभी एक घंटा पहले भी
कील पर झूलता कटिंग बोर्ड
और उसके नीचे रखा पानी का ग्लास
इसी तरह मौन थे इसी तरह शान्त.
***************
[2] पारिवारिक रोमांस
जब भी सम्भव हो
अपनी आत्मा से प्यार करो
और जब सम्भव न हो
प्यार से गले लगाओ, बोलो
एक दूसरे को कम-से-कम देखते हुए
बने रहो सभी की दृष्टि के केन्द्र में.
किस के सम्बन्ध में सोंच रहे हो तुम ?
मैं तुम्हारे सम्बन्ध में सोंच रहा हूँ
वह भी क्रोध के साथ
जब मैं तुम्हें आमने सामने नहीं देख सकता
मैं तुम्हें देख रहा हूँ कल्पना की आंखों से
जब मैं तुम से बोलना नहीं झेल सकता
मैं तुम्हें चुपचाप बुरा-भला कहता हूँअपने ह्रदय में.

मैं चौकन्ना रहता हूँ
मैं हर समय हर गति पर दृष्टि रखता हूँ
मेरे आंखों में नींद नहीं है
हो भी नहीं सकती तुम्हारे बिना
क्यों न हम नींद में ही लिपटा लें एक दूसरे को
जकड लें कसकर,कभी न बिछड़ने के लिए
पिघल कर मिल जायं आपस में
और बहते रहें तरल की तरह
या कम-से-कम इतना हो
कि पकड़ कर एक दूसरे का हाथ
कूद पड़ें दस हज़ार खतरों से भरी ट्रेफिक की भीड़ में
आपस में घुली-मिली विराट आत्माएं.
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अनुवाद एवं प्रस्तुति : शैलेश जैदी

बुधवार, 7 मई 2008

नाज़िम हिकमत की अन्तिम कविता / प्रस्तुति : शैलेश ज़ैदी

परिचय

नाज़िम हिकमत ( 1902-1963 ) टर्की के सर्व-श्रेष्ठ कवि थे. उनकी अधिकांश रचनाएं कारागार की चहारदीवारियों में ही लिखी गयीं. उनकी काव्य रचनाओं के अंग्रेज़ी अनुवाद बड़ी संख्या में उपाब्ध हैं.एलन बोल्ड, रैंडी ब्लासिंग और जोन बर्गर के अनुवाद विशेष उल्लेख्य हैं. उनकी कविताओं में अनुभवों का जुझारूपन, जीवंतता की चमक और ज्योमितीय कम्पास का गुण है. उनकी प्रेम कविताएं पत्नी को संबोधित कर के लिखी गई हैं. कारगर उनकी दृष्टि में क्या है, देखिये-

उन्होंने हमें बंदी बना लिया है,

हमें सलाखों के पीछे डाल दिया है,

मैं ऊंची दीवारों के भीतर हूँ और तुम बाहर

किंतु इस से क्या होता है.

बुरी स्थिति तो वह है

जहाँ लोग जान-बूझ कर या अनजाने

मेंअपने भीतर कारावास जीते हैं.

अधिकांश लोगों को इसके लिए बाध्य कर दिया गया है.

बेचारे ईमानदार, परिश्रमी और अच्छे लोग !

वो उतना ही प्यार के अधिकारी हैं

जितना मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.

नाजिम हिकमत ने आने वाली पीढियों को विशेष रूप से बच्चों को बड़े ही सकारात्मक सुझाव दिए हैं और इच्छा व्यक्त की है कि वो अपने स्वर्ग का निर्माण ख़ुद करें-

ठीक है, तुम खूब शरारतें करो,

दीवारों और ऊंचे वृक्षों पर चढो,

अपनी साइकलों को जिधर चाहो घुमाओ-फिराओ,

तुम्हारे लिए यह जानना अनिवार्य है

कि तुम इस काली धरती पर

किस प्रकार बना सकते हो अपना स्वर्ग

तुम चुप करदो उस व्यक्ति को

जो तुम्हें पढाता है कि यह सृष्टि

आदम से प्रारम्भ हुई

तुम्हें धरती के महत्त्व को स्वीकारना है.

तुम्हें विश्वास करना है कि धरती शाश्वत है.

अपनी माँ और धरती माँ में कभी भेद मत करना

इस से उतना ही प्यार करना

जितना अपनी माँ से करते हो.

यहाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत की जाती है नाजिम हिकमत की अन्तिम कविता शव -

क्या मेरे शव को ले जाया जायेगा नीचे अपने आँगन से ?

तुम कैसे उतारोगे मेरे ताबूत को तीन मंजिल नीचे ?

लिफ्ट में वह समाएगा नहीं

और सीढियां बहुत संकरी हैं

आँगन में होगी थोडी सी धूप

और होंगे कबूतर और बच्चों की चील-पों

फर्श हो सकता है चमकता हो बारिश में

और कूड़े-दान पड़े हों इधर-उधर बिखरे

अगर यहाँ की रीतियों के अनुसार मैं यहाँ से गया

चेहरा आसमान की ओर खुला हुआ

कोई कबूतर मुझ पर बीट कर सकता है

जो कि एक शगुन है

बैंड-बाजा यहाँ पहुंचे न पहुंचे

बच्चे ज़रूर आयेगे मेरे पास, मेरे निकट

बच्चों को पसंद हैं शव-यात्राएं
जब

निकलेगा मेरा शव

तो किचन की खिड़की मुझे ताकती होगी

बालकनी में सूखते कपड़े

हिलते हुए करेंगे मुझे बिदा

मैं यहाँ खुश था

कल्पनातीत खुशी थी मेरे पास

मित्रो ! तुम सब जियो लम्बी उम्र

और जीवन पर्यन्त रहो सुखी.

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मंगलवार, 6 मई 2008

मेज़ो कवितायें / प्रस्तुति : नासिरा शर्मा

परिचय
मेज़ोरम भारत का मात्र एक प्रांत ही नहीं, ये रंग-बिरंगी दुनिया और मीठी आवाज़ों वाला इलाका भी है. यहाँ लोकगीतों का खजाना है. लौशायी कबीला जो यहाँ गवय्या कबीला भी कहलाता है, संगीत उसकी रगों में खून की तरह बहता है. मेज़ोरम की पहली कवयित्री हम्वाकी थीं जिन्हें उनके गाँव वालों ने ज़िन्दा दफ़ना दिया था कारन केवल इतना था की यह महिला हर विषय पर कविता रचती है. यहाँ मेज़ो कवयित्रियों की तीन कवितायें प्रस्तुत हैं.
1.टूटे सपने और सूखी हड्डियाँ /माल्सोम रआत ज़ाली जेकब
टूटे सपने, सूखी हड्डियाँ,
बस यही है मेरे पास
कौन क्या करेगा इन दो वस्तुओं का ?

क्या कभी धूरा भी प्रशंसा भरे गीत गा सकता है ?
क्या सूखी हड्डियाँ भी
तालियाँ बजा नृत्य कर सकती हैं ?
फिर भी जाने क्योंमन को प्रतीक्षा रहती है.

इस राख के ढेर में
संयोग से
कहीं कोई फोएनेक्स
तो नहीं दफ़न है.?
२. बारिश के बाद / नाल्थियांग लेमी ज़ोत
चिडियां अपनी चहचहाहट से घोषित करती हैं
कि वे ऊंचा बहुत ऊंचा उड़ सकती हैं.
पूरे संतोष के साथ
अपनी पत्तियां निकालते हैं लंबे वृक्ष
नन्ही घास.

पहाड़ दूर हैं और आसमान ऊपर,
ताजगी फैली है जहाँ तक जाती है दृष्टि
बारिश के बाद.
प्रकृति अपने धुले हरियाले कपडों के संग
भर देती है मिठास हवाओं में

बादल की गरज और बिजली की चमक से प्रकृति
डराती है हमें अपना रौद्र रूप दिखा कर
कुछ ऐसा ही भयानक तूफ़ान
इस समय उठा है मेरे मन में
जिसने मेरे ह्रदय को
दुःख और उदासी से भर दिया है.

मेरे स्थिर मस्तिष्क पर दस्तक देता है
अक्सर यह मुहावराहर
बादल में छुपी होती है आशा की किरण
यह बहुत बड़ी चुनौती है
जिसका डटकर सामना करना है
फिर क्यों बैठी हो तुम
बिना संघर्ष के, यूं चुपचाप ?

क्या प्रकृति के पास नहीं है
इस प्रश्न का कोई उत्तर ?
दक्ष हाथों ने रची है विभिन्नता से सजी यह धरती.
अभी देर नहीं हुई है इस से कुछ सीखने में
एक सुंदर संसार पा लेना अपने भीतर
बारिश के बाद.

3. मूर्ख गया नरक में / मोना ज़ोत
उसने स्थान चुना
और लगाया ठीक उस स्थान पर
क्रॉस का निशान
लाया एक कुर्सी
ताके रख सके उसे वहां.

उसने रस्सी कसी
ऊपर छत की कड़ी में
और डाला फन्दा अपनी गर्दन में
पैर से धक्का दे गिराया
कुर्सी को ज़मीन पर
और अब वह गया नरक में
यही कर पाया वह
(अपनी माँ के अनुसार)
अपनी पूरी ज़िंदगी में
इकलौता अच्छा काम.

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

ग़ज़ल / शैलेश जैदी

ये दिल की धड़कनें होती हैं क्या, क्यों दिल धड़कता है ?
मिला है जब भी वो, बाकायदा क्यों दिल धड़कता है ?
बहुत मासूमियत से उसने पूछा एक दिन मुझसे ,
बताओ मुझको, है क्या माजरा, क्यों दिल धड़कता है ?
मुसीबत में हो कोई, टीस सी क्यों दिल में उठती है,
किसी को देख कर टूटा हुआ, क्यों दिल धड़कता है ?
किया है मैं ने जो अनुबंध उस में कुछ तो ख़तरा है,
मैं तन्हाई में जब हूँ सोचता, क्यों दिल धड़कता है ?
अनावश्यक नहीं होतीं कभी बेचैनियां दिल की,
कहीं निश्चित हुआ कुछ हादसा, क्यों दिल धड़कता है ?
तेरे आने से कुछ राहत तो मैं महसूस करता हूँ,
मगर इतना बता ठंडी हवा, क्यों दिल धड़कता है ?
अभी दुःख-दर्द क्या इस जिंदगी में और आयेंगे,
जो होना था वो सबकुछ हो चुका, क्यों दिल धड़कता है?
कहा मैं ने के अब दिल में कोई हसरत नहीं बाक़ी,
कहा उसने के बतलाओ ज़रा क्यों दिल धड़कता है ?
वो मयखाने में आकर होश खो बैठा है, ये सच है,
मगर क्या राज़ है, साकी ! तेरा क्यों दिल धड़कता है ?

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

शैलेश ज़ैदी की पाँच हिन्दी ग़ज़लें

[1]

यादों की दस्तक पर मन के वातायन खुल जाते है.
अपने आप ही मर्यादा के सब बन्धन खुल जाते हैं.
मैं उसको आवाज़ नहीं दे पाता लौट के आ जाओ,
दिल के गाँव में पीड़ा के पथ आजीवन खुल जाते हैं..
अर्थ-व्यवस्था के सुधार का आश्वासन क्यों देते हो ?
महंगाई की मार से झूठे आश्वासन खुल जाते हैं.
निर्धनता, भुखमरी मिटाने के प्रयास क्यों निष्फल हैं ?
तन ढकने की बात हुई जब और भी तन खुल जाते हैं.
शीशे के दरवाजों के वातानुकूल कक्षों में भी,
कुछ अधिकारी क्यों पाकर थोड़ा सा धन खुल जाते हैं.
मेरे घर के आँगन की दीवार बहुत ही नीची है.
ऊंचे भवनों की छत से नीचे आँगन खुल जाते हैं.
ओट में पलकों की सावनमय नयन छुपाए बैठे हो,
आंसू छलक-छलक पड़ते हैं जब ये नयन खुल जाते हैं.

[2]

पुष्पों का स्थैर्य दीर्घकालीन नहीं होता ।
इसीलिए मन पुष्पों के आधीन नहीं होता ॥
होंठों की मुस्कानें अक्सर धोखा देती हैं ।
आस्वादन का मोह सदा रंगीन नहीं होता ॥
दर्शक दीर्घा में बैठा हर व्यक्ति, एक जैसा ,
नाट्य-कला का भीतर से शौकीन नहीं होता ॥
सुख,संतोष,आनंद सरीखे सुंदर शब्दों का,
अर्थ है क्या जबतक कोई स्वाधीन नहीं होता ॥
अलंकरण, आभूषण से कब रूप संवारता है ,
स्वाद रहित है भोजन जो नमकीन नहीं होता ॥
कुर्सी ही आसीन हुआ करती है लोगों पर ,
कुर्सी पर शायद कोई आसीन नहीं होता ॥
बस उपाधियाँ मिल जाएं होता है लक्ष्य यही ,
पढने-लिखने में यह मन तल्लीन नहीं होता ॥
राजनीति में आने वाले दिग्गज पुरुषों का,
कोई भी अपराध कभी संगीन नहीं होता ॥

[3]

दिशा-विहीन हैं सब , फिर भी चल रहे हैं क्यों ?
हर-एक पल नई राहें बदल रहे हैं क्यों ?
समाज आज का विज्ञापनों की मंडी है।
हम इस समाज में चुपचाप पल रहे हैं क्यों ?
उड़े-उड़े से हैं चेहरे, झुकी-झुकी आँखें।
लुटा के आए हैं क्या , हाथ मल रहे हैं क्यों ?
लगी है आग ये कैसी, ये शोर कैसा है ?
ये किस के घर हैं, यहाँ लोग जल रहे हैं क्यों ?
कहाँ विलुप्त हुई स्वाभिमान की पूंजी ।
हम आज बर्फ की सूरत पिघल रहे हैं क्यों ?
कभी तो सोंचो , युगों तक, सभी दिशाओं में ।
हम इस जगत में हमेशा सफल रहे है क्यों ?
ये चक्रव्यूह है बाजारवाद का, इस में ।
हमारे मित्र निरंतर फिसल रहे हैं क्यों ?
ये कैसा शहर है, क्यों दौड़-भाग जारी है ?
घरों से लोग परीशां निकल रहे है क्यों ?

[4]


विपत्तियों में भी मुस्कान का भरोसा है ।
खिलेंगे फूल, ये उद्यान का भरोसा है ॥
भटक रहे हैं वो अज्ञान- के अंधेरों में ।
जिन्हें विवेक - रहित ज्ञान का भरोसा है ॥
जगत में छोड़ के जाना है एक दिन जिसको ।
शरीर के उसी परिधान का भरोसा है ॥
ये पेड़, जिन पे नही आज एक भी पत्ता ।
इन्हें वसंत के आह्वान का भरोसा है ॥
अँधेरी रातें हों जैसी भी, सुब्ह आती है ।
दिवस हों जैसे भी, अवसान का भरोसा है ॥
ये लोग योग को व्यवसाय क्यों बनाते हैं।
वहीं है योग , जहाँ ध्यान का भरोसा है ॥
गिरे-पडों को भी मैं आदमी समझता हूँ ।
मुझे मनुष्य के सम्मान का भरोसा है ॥

[5]

कलुशताएं किसी के मन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

दरारें कैसी भी जीवन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

बताओ तो सही, हर पल मुखौटे क्यों बदलते हो,

विवशताएं किसी बन्धन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

तुम्हारा रूप खिल उठता है जब तुम मुस्कुराते हो,

लकीरें कुछ अगर दरपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

युवावस्था में दुःख का झेलना मुश्किल नहीं होता,

मगर पीडाएं जो बचपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

जुदाई की ये घडियाँ यूं तो सह लेते हैं सब लेकिन,

यही घडियाँ अगर सावन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

सुलगती हों कहीं चिंगारियां अन्तर नहीं पड़ता,

ये जब ख़ुद अपने ही दामन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उसकी आंखों की इबारत साफ थी।
मैं नहीं समझा, शिकायत साफ थी॥
क्या गिला करता मैं उसके ज़ुल्म का।
उसकी जानिब से तबीअत साफ थी ॥
छुप के तन्हाई में क्यों मिलते थे हम ?
जबके हम दोनों की नीयत साफ थी.
क़त्ल करके भी, वो बच निकला जनाब।
जानते हैं सब, शहादत साफ़ थी.
गुफ्तुगू में उसकी, थीं हमदर्दियां ।
उसके चेहरे पर मुरव्वत साफ थी॥
रुख नमाज़ों में उसी की सम्त था।
मेरी तफ़सीरे-इबादत साफ थी॥
मुफलिसी अपनी छुपाता किस तरह।
सब पे ज़ाहिर मेरी हालत साफ थी॥
वो मेरा आका था, मैं क्या टोंकता।
जो भी करता था, हिमाक़त साफ़ थी.
वो हमेशा खुश रहा मेरे बगैर।
हाँ मुझे उसकी ज़रूरत साफ थी॥

गुरुवार, 27 मार्च 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मेरे मकान में थोडी सी रौशनी कम है ।

के आफताब की आमद यहाँ हुयी कम है ॥

मैं उसको चाहता हूँ और उससे दूर भी हूँ।

कभी भरोसा है उसपर बहोत , कभी कम है ॥

लबों पे उसके शहद की मिठास है अब भी,

मगर ज़बान में हलकी सी चाशनी कम है ॥

सवाल मैं ने किया, चेहरा मुज्महिल क्यों है ?

जवाब उसने दिया, आज ताजगी कम है ॥

पिला रहा है वो भर-भर के जाम क्यों सब को,

उसे ख़बर है कि रिन्दों में तशनगी कम है।

उसे बताओ वो महफ़िल में सबसे अच्छा है,

मगर मिजाज में उसके शगुफ्तगी कम है ॥

जदीदियत ने हमारे दमाग बदले हैं ,

जभी तो आज बुजुर्गों की पैरवी कम है।।

चलो यहाँ से, के घुटता है दम यहाँ मेरा,

यहाँ पे शोर बहोत, कारकर्दगी कम है॥

कहाँ मैं आ गया , ये बस्तियां अजीब सी हैं,

यहाँ हयात की चादर अभी खुली कम है॥

तुम्हारी बातों से मायूसियां झलकती हैं,

तुम्हारे जुम्लों में तासीरे-ज़िंदगी कम है ॥

मंगलवार, 25 मार्च 2008

प्रो० हरि शंकर आदेश

प्रोफेसर हरि शंकर आदेश एक सुविख्यात कवि, लेखक और संगीतकार हैं. कैनडा, अमेरिका और ट्रीनिडाड से हिन्दी की जीवन-ज्योति नामक पत्रिका का सफल संपादन कर रहे हैं और हिन्दी भाषा तथा साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं हिंदू धर्म और संस्कृति की सुरक्षा तथा भारत के गौरव को समुज्ज्वल देखने के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित हैं. सुदूर देश में रहकर भी हिन्दी में लगभग एक सौ साठ पुस्तकें लिखने का उन्हें श्रेय प्राप्त है. विचारों में खुलापन, संकल्प की दृढ़ता, विवेक-युक्त चिंतन और साम्प्रदायिक सौहार्द की चिंता उनके चरित्र की विशेषताएँ हैं. प्रस्तुत है यहाँ उनकी तीन कवितायें-
१.अश्रुपात क्यों ?
आज अचानक अश्रुपात क्यों ?

होता है अपराध-बोध सा ,
अंतरात्मा के विरोध सा,
प्रबल प्रभंजन भर प्राणों में,
झरता है युग-युग प्रपात क्यों ?

आती है ध्वनि अंतराल से ,
असावधान मत रहो काल से,
अविदित, अ-प्रत्याशित क्षण में,
होता यम् का वज्रपात क्यों ?

यह सच है दम्भी न रहा मैं,
किंतु स्वावलम्बी न रहा मैं,
अन्धकार का भी आश्रय ले ,
प्रफुल्लेच्छु उर-वारिजत क्यों ?

प्रिय ! न कहीं पथ-च्युत हो जाऊं,
संबल दो, अस्मिता बचाऊं,
विषम परिस्थितियों के तम में,
हुआ तिरोहित नव-प्रभात क्यों ?
*****************

२. सम्पूर्ण

मैं जनता हूँ कि तुम

मुझे प्यार नहीं दे सकोगे,

तो घृणा ही दे दो।

मैं जनता हूँ कि तुम

मुझे सुख नहीं दे सकोगे,

तो पीड़ा ही दे दो ।

किंतु जो कुछ भी दो,

दो सम्पूर्ण।

मैं नहीं चाहता कि तुम उसका एक अंश भी,

अपने पास रखो ।

सारी घृणा,

सारी पीड़ा,

मुझे दे दो।

ताकि संसार के हर प्राणी को देने के लिए,

तुम्हारे पास,

प्यार के अतिरिक्त और कुछ न रहे।

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३। प्रश्न

जब कि पशु का शिशु,

सदा ही पशु कहाता,

और,

जब संतान मानव की कहाती है मनुज ही .
वनस्पतियों की उपज है,

वनस्पति ही तो कहातीइस जगत में ।


क्यों न फिर भगवन की संतान भी,

भगवन कहलाती भुवन में ?

और की जाती उपासित है सदाभगवन सी ही ?

जब कि हर प्राणी यहाँ भगवन की संतान,

फिर गुण क्यों नहीं उसमें पिता के ?
और यह शैतान है उपजा कहाँ से ?

पुत्र है शैतान यदि भगवन का ही,

अर्थ है इसका कि फिर भगवन तो,

शैतान का भी बाप है ।

शायद इसी से मिट नहीं पाया अभी तक विश्व

का संताप है ?

******************