मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं।
मान्यताएं शिथिल पड़ गयीं॥
ऐसे साहित्य कर्मी जुड़े,
संस्थाएं शिथिल पड़ गयीं॥
शून्य उत्साह जब हो गया,
भावनाएं शिथिल पड़ गयीं॥
गीत संघर्ष के सो गये,
वेदनाएं शिथिल पड़ गयीं।
शोर संसद भवन में हुआ,
शारदाएं शिथिल पड़ गयीं॥
हम दलित भी न कहला सके,
थक के हाएं शिथिल पड़ गयीं॥
सुनके मेरी ग़ज़ल कितनी ही,
ऊर्जाएं शिथिल पड़ गयीं
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कल थीं रसमय भूल गयी हैं

कल थीं रसमय भूल गयी हैं ।
कविताएं लय भूल गयी हैं॥
अहंकार-गर्भित सत्ताएं,
विजय परजय भूल गयी हैं॥
समय खिसकता सा जाता है,
कन्याएं वय भूल गयी हैं॥
लगता है अपनी ही साँसें,
अपना परिचय भूल गयी हैं॥
संघर्षों में रत पीड़ाएं,
मन का संशय भूल गयी हैं॥
हाथ की रेखाएं भी शायद,
अपना निर्णय भूल गयी हैं॥
चिन्ताएं बौलाई हुई हैं,
मंज़िल निश्चय भूल गयी हैं॥
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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

आँखें चित्र-पटल होती हैं

आँखें चित्र-पटल होती हैं।
इसी लिए चंचल होती हैं।
जब भी चित्त व्यथित होता है,
ये भी साथ सजल होती हैं॥
मेरी, उसकी सबकी आँखें,
ठेस लगे, विह्वल होती हैं॥
मन की बातें सुन लेती हैं,
आँखें कुछ पागल होती हैं॥
हमें भनक सी लग जाती है,
जो घटनाएं कल होती हैं॥
पनघट की कविताओं वाली,
पनिहारिनें चपल होती हैं॥
पिता हिमालय कम होते हैं,
माएं गंगा जल होती हैं॥
संकल्पों की सब देहलीज़ें ,
स्थिर और अटल होती हैं॥
समय के पाँव कुचल जाते हैं,
आशाएं मख़मल होती हैं॥
कोई ग़ज़ल नहीं कहता मैं,
सब मेरा ही बदल होती हैं॥
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गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से

गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से।
हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥

विश्वास न था मन में तो क्यों आये यहाँ आप,
इक पल में हुए जाते हैं क्यों इतने विकल से॥

क्या आगे सुनाऊं मैं भला अपनी कहानी,
प्रारंभ में ही हो गये जब आप सजल से॥

मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥

ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
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रविवार, 25 अप्रैल 2010

ब्रज भाषा और अवधी का तिरस्कार क्यों

ब्रज भाषा और अवधी का तिरस्कार क्यों
अभी कल तक, यानी देवनागरी आन्दोलन से पहले तक, ब्रज और अवधी भाषाएं अपने उच्च स्तरीय साहित्य के लिए समूचे देश में एक विशेष पहचान रखती थीं।उस समय तक बंगला, मराठी, गुजराती,उड़िया आदि भाषाओं के पास इतनी पूंजी भी नहीं थी कि इसके आसपास ठहर सकें।भौगोलिक दृष्टि से ये दोनों ही उत्तर प्रदेश की भाषाएं थीं।किन्तु ब्रज भाषा की स्थिति अवधी से थोड़ा भिन्न थी।यह एक अन्तर प्रान्तीय स्तर की भाषा बन चुकी थी। उर्दू की स्थिति भले ही राजभाषा की रही हो और मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, सौदा, मोमिन जैसे शायर भले ही उसे संवारने में लगे हों, ब्रज भाषा गुरु नानक, कबीर, बाबा फ़रीद, सूर, तुलसी,फ़ैज़ी, बीरबल,बिहारी, रसलीन, घनानन्द, अकबर, जहाँगीर, औरंगज़ेब, के घरों और दरबारों से गुज़रती हुई जनमानस के दिलों में प्रवेष कर चुकी थी।मन्दिरों से लेकर ख़ानक़ाहों तक और भजन और ठुमरी से लेकर सूफ़ियों की समा'अ की महफ़िलों तक इसी के स्वर गूंजते दिखाई देते थे।सुदामा चरित से लेकर कर्बल गाथा तक इसकी वैचारिक परिधियों का विस्तार था।संकीर्णताएं इसके शरीर को छू तक नहीं पाती थीं।मुहर्रम के दिनों में ब्रज भाषा के मरसिए [दाहा] और नौहे मातमी फ़िज़ा को भिगो कर आंसुओं से तर कर देते थे।ब्रज भाषा की आधार शिला ही प्रेम और मेल-मिलाप की थी।
देवनागरी आन्दोलन का प्रारंभ हुआ तो उर्दू लिपि के विरोध से।किन्तु बगाली और मराठी ब्राह्मणों का सक्रिय सहयोग पाकर यह उर्दू भाषा विरोधी बन गया।उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर हिन्दुओं को उससे दूर किया गया। ठीक है इस आन्दोलन का यह लाभ अवश्य हुआ कि उर्दू बेघर हो गयी और हिन्दी के नाम पर तथाकथित खड़ी बोली का एक नया रूप खड़ा हो गया। पर इस आन्दोलन से जितनी क्षति ब्रज भाषा को पहुंची, उर्दू को नहीं पहुंची।ब्रज की स्थिति यह हो गयी कि "इस घर को आग लग गयी घर के चिराग़ से"।बिचारी भाषा के पद से हटा दी गयी और बोलियों में गिनी जाने लगी।जैसे उसका कोई साहित्य कभी रहा ही न हो। ब्रज के कवियों ने कविताएं लिखना बन्द कर दी।भारतेन्दु जी चिल्लाते ही रहे "निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल",किन्तु ब्रज भाषा निजभाषा न बन सकी।खड़ी बोली के नाम पर खड़ी संवैधानिक हिन्दी को ब्रज भाषा के विकास में खतरा दिखायी दिया।कंकड़-पत्थर और चूने-गारे की इमारतें तक ऐतिहासिक धरोहर कहलाती हैं और उनकी सुरक्षा पर सरकार करोड़ों रूपये ख़र्च करती है।पर वह भाषा जो हमारे संस्कारों के बीच से जन्मी और विकसित हुई थी, हमारे ही बीच अजनबी होती जा रही है।
दिल्ली में ब्रज भाषा अकादमी बनाने की बात आयी तो कृष्णदत्त पालीवाल जैसे लोग उसके विरोध में ख़ून-पसीना एक करके लंबे-लंबे लेख लिखने बैठ गये।उनका विचार है कि ऐसी अकादमियां यदि बन गयीं तो 'हिन्दी नहीं बचेगी।'उन्हें इस विचार में ही 'अलगाव की राजनीति' दिखती है।उर्दू अकादमियाँ जब बनायी जा रही थीं उस समय भी ऐसे ही बल्कि इस से भी अधिक ख़तरनाक विचार व्यक्त किये गये थे। पर इतिहास ने साबित कर दिया कि इस से हिन्दी को कोई ख़तरा नहीं पहुंचा। उसके शरीर पर खरोच तक नहीं आयी। दिल्ली में भोजपुरी-मैथिली अकादमी भी बनी और सुचारु रूप से चल भी रही है। हिन्दी का सहयोग भी उसे मिल रहा है। क्या आफ़त आ गयी उसके बनने से।विश्वविद्यालयों की स्थिति अब यह है कि प्राकृत और अपभ्रंश पढाने वाले पहले ही विलुप्त हो चुके थे,ब्रज और अवधी पढाने वाले भी अब नहीं मिलते। सरलीकरण की प्रवृत्ति ने ऐसा ज़ोर पकड़ा है कि जिसे देखिए कहानी और उपन्यास पर शोध-प्रबंध लिख रहा है।ज़ाहिर है कि इस लेखन में प्रबंध ही प्रबंध है, शोध की तो कोई भूमिका ही नहीं है।सूर तुलसी,मुल्ला दाऊद, मलिक मुहम्मद, रहीम रसखान को हम क्यों खो देना चाहते हैं। क्या इसी में हिन्दी का भला है। एक रेखा को मिटा कर दूसरी को बड़ी साबित करना क्या मूर्खता नहीं है।ब्रज और अवधी का साहित्य हमारे लिए किसी ताजमहल से कम महत्त्व्पूर्ण नहीं है।बल्कि यह भाषाएं हमारे सांस्कृतिक क़िले हैं जिनपर आपसी सौहार्द का झण्डा फहराकर हमें गौरवान्वित होना चाहिए।
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शनिवार, 24 अप्रैल 2010

भाषा का शुद्धतावादी दृष्टिकोण

भाषा का शुद्धतावादी दृष्टिकोण
हिन्दी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दर्शाने वाला आज एक वर्ग ऐसा भी है जो उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों के प्रति कुछ ऐस घृणा भाव रखता है कि उनके स्पर्श मात्र से उसे हिन्दी के अशुद्ध हो जाने की प्रतीति होती है।रोचक बात यह है कि अपने इन विचारों को अंग्रेज़ी भाषा के माधयम से व्यक्त करना वह अपने लिए श्रेयस्कर समझता है।भाषा के इतिहास को सामने रखकर जब मैं सोचता हूं तो यह नहीं समझ पाता कि ऐसे लोग किस हिन्दी की शुद्धता की बात करते हैं।आठवीं- नवीं शताब्दी ई0 तक तो इसका कोई अस्तित्व ही नहीं था।ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में प्राकृत और पाली भाषाएं ब्रह्मणों द्वारा पोषित संस्कृत भाषा के विरोध में पूरी तरह खड़ी हो चुकी थीं और भारत की आम जनता उनसे बहुत निकट से जुड़ी हुई थी। वैसे भी बौद्ध और जैन धर्मों के अनुयायी इन्हें क्रमशाः अपना चुके थे। पाली का विकास तो अधिक नहीं हुआ किन्तु प्राकृत से ही इस देश की लगभग सभी भाषाएं विकसित हुईं।और यह विकास उसी अशुद्धता का नतीजा था जिसके विरुद्ध शुद्धतावादी गले फाड़-फाड़ कर चीख़ते रहे और शब्दों का तत्सम रूप तदभव में सहज ही ढलता रहा।मधय युग तक अरबी, फ़ारसी, तुर्की, पुर्तगी और डच भाषाओं के अनेक शब्द इसके रंग रूप को संवारते रहे।तुलसी तक ने श्री राम को "ग़रीब-नवाज़" कहा और "मालिक दीन दुनी कौ" होने की घोषणा की। ताव तो इन शुद्धता वदियों को इस बात पर भी आता होगा।पर क्या करें रामचरित मानस और विनय पत्रिका में बेशुमार अरबी-फ़ारसी शब्द भरे पड़े हैं। लेकिन तुलसीदास की भाषा विद्वानों की दृष्टि में आज चाहे जो भी कहलाये,तुलसी इसे हिन्दी नही भाखा कहते थे- का भाखा का संस्किरत प्रेम चाहिए साँच्।फ़ोर्ट विलियम कालेज की स्थापना के समय तक हिन्दी, हिन्दवी, रेख़्ता आदि से अभिप्राय उर्दू ही था।सूर तुलसी आदि की भाषा "भाखा" थी, जिसकी वजह से फ़ोर्ट विलियम कालेज में भाखा मुंशी की नियुक्ति की गयी थी, हिन्दी लिपिक की नहीं।संवैधानिक दृष्टि से जिस भाषा को हिन्दी घोषित किया गया वह शुद्धतावादियों की भाषा थी। जनता की भाषा तो गाँधी जी की दृष्टि में हिन्दुस्तानी थी, जिसका अर्थ शुद्धतावादी उर्दू लिया करते थे। अब समस्या यह है कि हम किस भाषा की शुद्धता की बात करते हैं।जनसामान्य की भाषा की या वैदिक ब्रह्मणों की भाषा की ?
भाषा का स्वभाव नदी के पानी जैसा होता है, निर्मल और तरल, जो अपनी दिशा स्वयं चुन लेता है।उसके लिए शब्द स्वदेशी और विदेशी नहीं हुआ करते।वह तो दूसरों को तृप्त देखना चाहता है।स्टेशन, रेलवे लाइन और स्कूल का बदल तलाश करना भाषा को पीछे ढकेलना है।जमुना को यमुना और बनारस को वाराणसी कर देने से रोटी की समस्या नहीं हल होती।कोमलता भाषा की जान होती है।शायद इसी लिए "ण" की धवनि ब्रज और अवधी भाषाओं ने निकाल फेंकी थी।चाक्लेट और बर्गर के ज़माने में फ़ास्ट-फ़ूड कल्चर तो पनपना ही है।संस्कृति किसी धर्म का धरोहर नहीं होती।देश, काल और भौगोलिक स्थितियाँ इसे रूप और आकार देती हैं।शुद्धतावादी दृष्टिकोण भाषा के विकास में कितना घातक है, इतिहास की आँखें इस ओर से मुंदी हुई नहीं हैं।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

तुम समन्दर के उस पार से।

तुम समन्दर के उस पार से।
जीत लोगे मुझे प्यार से॥

मैं तुम्हें देखता ही रहूं,
तुम रहो यूं ही सरशार से॥

रौज़नों से सुनूंगा सदा,
अक्स उभरेगा दीवार से॥

इन्तेहा है के इक़रार का,
काम लेते हो इनकार से॥

गुल-सिफ़त गुल-अदा बाँकपन,
जाने-जाँ तुम हो गुलज़ार से॥

खे रहा कश्तिए-ज़िन्दगी,
मैं इरादों के पतवार से॥

ग़म में भी मुस्कुराने का फ़न,
सीख लो मेरे अश'आर से॥
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बेचैन सी हैं पलकें शायद

बेचैन सी हैं पलकें शायद।
रोई हैं बहोत आंखें शायद।
कुछ देर तो बैठें साथ कभी,
कुछ प्यार की हों बातें शायद्॥
जो शीश'ए दिल कल टूट गया,
चुभती हैं वही किरचें शायद्॥
इस बार गुज़ारिश फिर से करूं,
मंज़ूर वो अब कर लें शायद॥
कैफ़ीयते-दिल पहचानती हैं,
सहमी-सहमी यादें शायद्॥
ठहरी थीं मेरे घर में भी कभी,
महताब की कुछ किरनें शायद्॥
हर एक के दिल की धड़कन में,
कल शेर मेरे गूंजें शायद्॥
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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं।
मिटटी के वो खिलौने कभी टूटते नहीं॥

जुगनू जो रख के जेब में होते थे ख़ुश बहोत,
वो ज़िन्दगी में बन के सितारे टँके नहीं॥

मिटटी का तेल भी न मयस्सर हुआ कभी,
शिकवा है दोस्तों को के हम पढ सके नहीं॥

मेहनत्कशी से आँख चुराते भी किस तरह,
आसाइशों की गोद में जब हम पले नहीं॥

जो रूखा-सूखा मिल गया खाते थे पेट भर,
लुक़्मा वो अब चबाएं तो शायद चबे नहीं॥
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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें।
क्या ख़ुद को तसव्वुर में भी शादाब न देखें॥
क्यों अपने शबो-रोज़ से हम मूंद लें आँखें,
कैसे तेरी जानिब दिले-बेताब न देखें॥
साहिल पे चेहल-क़दमियाँ करते रहें दिन-रात,
बस कैफ़ियते-माहिए-बेआब न देखें॥
आँगन में उतर आये अगर रात में चुप-चाप,
क्यों ज़िद है के हम ख़्वाहिशे-महताब न देखें॥
इस मार्क'ए इश्क़ में लाज़िम है के आशिक़,
मक़्तल में कभी ख़ुद को ज़फ़रयाब न देखें॥
नदियों की सफ़ाई में तो जी जान से लग जायें,
पर गाँव का दम तोड़ता तालाब न देखें॥
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