ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / कहते हो के हम कोई लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें

कहते हो के हम कोई नया ख़्वाब न देखें।
क्या ख़ुद को तसव्वुर में भी शादाब न देखें॥
क्यों अपने शबो-रोज़ से हम मूंद लें आँखें,
कैसे तेरी जानिब दिले-बेताब न देखें॥
साहिल पे चेहल-क़दमियाँ करते रहें दिन-रात,
बस कैफ़ियते-माहिए-बेआब न देखें॥
आँगन में उतर आये अगर रात में चुप-चाप,
क्यों ज़िद है के हम ख़्वाहिशे-महताब न देखें॥
इस मार्क'ए इश्क़ में लाज़िम है के आशिक़,
मक़्तल में कभी ख़ुद को ज़फ़रयाब न देखें॥
नदियों की सफ़ाई में तो जी जान से लग जायें,
पर गाँव का दम तोड़ता तालाब न देखें॥
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