बुधवार, 7 अप्रैल 2010

नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं

नक्सलीयत की ये ख़ूँरेज़ियाँ क्या चाहती हैं।
क्यों बदलना ये सियासत की फ़िज़ा चाहती हैं॥
अब तो अख़बार के सफ़हों से टपकता है लहू,
ख़ुन में डूबी इबारात फ़ना चाहती हैं॥
आ के शायर भी सरे बज़्म रचा करते हैं स्वाँग,
महफ़िलें आज सुख़नवर से अदा चाहती हैं॥
फ़िकरें ऐसी हैं के अंजाम से है बे-ख़बरी,
ख़्वाहिशें ऐसी के जीने का मज़ा चाहती हैं॥
सर उठाती हुई ख़ुशरंग नयी तहज़ीबें,
अपनी पहचान बहरहाल जुदा चाहतीहैं॥
वक़्त की धड़कनें कुछ और ही देती हैं पता,
बेवफ़ा हो के भी तस्दीक़े-वफ़ा चाहती हैं॥
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نکسلیت کی یہ خوں ریزیاں کیا چاہتی ہیں
کیوں بدلنا یہ سیاست کی فضاء چاھتی ہیں
اب تو اخبار کے صفحوں سے ٹپکتا ہے لہو
خون میں ڈوبی عبارات فنا چاہتی ہیں
آ کے شاعر بھی سر بزم رچا کرتے ہیں سوانگ
محفلیں آج سخنور سے ادا چاہتی ہیں
فکریں ایسی ہیں کہ انجام سے ہے بے خبری
خواہشیں ایسی کہ جینے کا مزا چاہتی ہیں
سر اٹھاتی ہوئی خوش رنگ نئی تہذیبیں
اپنی پہچان بہرحال جدا چاہتی ہیں
وقت کی دھڑکنیں کچھ اور ہی دیتی ہیں پتہ
بے وفا ہو کے بھی تصدیق وفا چاہتی ہیں
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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

घने कुहरे में बीनाई भी हो जाती है लायानी / گھنے کہرے میں بِینائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی

घने कुहरे में बीनाई भी हो जाती है लायानी।
मुसीबत में पज़ीराई भी हो जाती है लायानी॥
निशाने-मंज़िले-जानाँ की जानिब जब मैं बढ़ता हूं,
मेरे नज़दीक रुस्वाई भी हो जाती है लायानी॥
फ़रावानी अगर दौलत की हो फिर सोचना क्या है,
ज़माना-सोज़ महँगाई भी हो जाती है लायानी॥
अगर मक़्सद न हो पेशे-नज़र, हर जेह्द ला-हासिल,
हमारी कोह-पैमाई भी हो जाती है लायानी॥
जहाँ तश्नालबी ख़ंजर की ज़द पर मुस्कुराती हो,
वहाँ ज़ख़्मों की गहराई भी हो जाती है लायानी॥
हमारे सामने ले देख ले ऐ क़ूवते-बातिल,
तेरी मग़रूर अँगड़ाई भी हो जाती है लायानी॥
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گھنے کہرے میں بِینائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
مصیبت میں پزیرائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
نشان منزل جاناں کی جانب جب میں بڑھتا ہوں
مرے نزدیک رسوائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
فراوانی اگر دولت کی ہو پھر سوچنا کیا ہے
زمانہ سوز مہنگا ئی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
اگرمقصد نہ ہو پیش نظرہر جہد لا حاصل
ہماری کوہ پیمائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
جہاں تشنہ لبی خنجرکی زد پرمسکراتی ہو
وہاں زخموں کی گہرائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
ہمارے سامنے لے دیکھ لے اے قوت باطل
تری مغرور انگڑائی بھی ہو جاتی ہے لا یعنی
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बीनाई=देखने की शक्ति ।लायानी=अर्थहीन ।पज़ीराई=प्रशंसात्मक स्वीकृति ।निशाने-मज़िले-जानाँ=प्रियतम की मंज़िल के निशान ।रुस्वाई=बदनामी ।फ़रावानी=बहुतायत ।ज़माना-सोज़=ज़माने को जला देने वाली ।जेह्द=प्रयास ।लाहासिल=व्यर्थ ।कोह-पैमाई=पहाड़ों को नापना ।तश्नालबी=प्यास ।क़ूवते-बातिल=असत्य शक्ति ।मग़रूर=घमण्डी ।

भीड़ में रास्ता बनाते रहे / بھیڑ میں راستہ بناتے رھے

भीड़ में रास्ता बनाते रहे।
हम भी तक़दीर आज़माते रहे॥
जान अपनी बचा के ख़ुश थे बहोत,
जाँनिसारी के गीत गाते रहे॥
सुल्ह करना जिन्हें गवारा न था,
जंग होने पे मुँह छुपाते रहे॥
आज किस शान से हैं कुर्सी नशीं,
लोग जिनका मज़ाक़ उड़ाते रहे॥
कैसी जज़बातियत है मज़हब में,
ख़ुब लोगों को वरग़लाते रहे॥
उसके घर से उठा किये शोले,
और हम क़हक़हे लगाते रहे॥
सच तो ये है के दिल ही जानता है,
किस तरह दोस्ती निभाते रहे॥
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بھیڑ میں راستہ بناتے رھے
ہم بھی تقدیر آزماتے رھے
جان اپنی بچا کے خوش تھے بہت
جاں نثاری کے گیت گاتے رھے
صلح کرنا جنھیں گوارہ نہ تھا
جنگ ہونے پہ منہ چھپاتے رھے
آج کس شان سے ہیں کرسی نشین
لوگ جن کا مذاق اڑاتے رھے
کِسی جذباتیت ہے مذھب میں
خوب لوگوں کو ورغلاتے رھے
اس کے گھر سے اٹھا کۓ شعلے
اور ہم قہقہے لگاتے رھے
سچ تو یہ ہے کہ دل ہی جانتا ہے
کس طرح دوستی نبھاتے رھے
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सोमवार, 5 अप्रैल 2010

सच तो ये है के हुए पल के जवाँ जन्नत में॥


सच तो ये है के हुए पल के जवाँ जन्नत में॥
अब भी मिल जायेंगे पैरों के निशाँ जन्नत में।

अपनी ख़िल्क़त से ही होते हैं फ़रिश्ते मासूम,
एक ही तर्ज़ पे जीते हैं वहाँ जन्नत में॥

मैं के इन्सान हू रखता हूं ज़मीनों का ख़मीर,
टिकते हैं साहिबे इदराक कहाँ जन्नत में॥

हमनशीनी है तेरी जन्नतो-दोज़ख से अलग,
कौन समझेगा वहाँ मेरी ज़ुबाँ जन्नत में॥

हूरो-ग़िल्मान बराबर तो नहीं हो सकते,
यानी है मामलए-सूदो-ज़ियाँ जन्नत में॥

तू यहाँ रहता है हर लमहा रगे-जाँ के क़रीब,
क्यों मैं तामीर करूं अपना मकाँ जन्नत में॥
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سچ تو یہ ہے کہ ہوۓ پل کے جواں جنت میں
اب بھی مل جائیں گے پیروں کے نشان جنت میں
اپنی خلقت ہی سے ہوتے ہیں فرشتے معصوم
ایک ہی طرز پہ جیتے ہیں وہاں جنت میں
میں کہ انسان ہوں رکھتا ہوں زمینوں کا خمیر
ٹکتے ہیں صاحب ادراک کہاں جنت میں
ہم نشینی ہے تری جنت و دوزخ سے الگ
کون سمجھے گا وہاں میری زباں جنت میں
حور و غلمان برابر تو نہیں ہو سکتے
یعنی ہے معاملہ سو د و زیاں جنت میں
تو یہاں رہتا ہے ہر لمحہ رگ جان کے قریب
کیوں میں تعمیر کروں اپنا مکاں جنت میں
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जन्नत=स्वर्ग । ख़िल्क़त=उत्पत्ति ।तर्ज़=ढंग ।ख़मीर=सत्त्व ।साहिबे-इदराक=समझ-बूझ वाले॥हमनशीनी=साथ उठना-बैठना ।हूरो-ग़िल्मान=सुन्दरियाँ और खूबसूरत लड़के । मामलए-सूदो-ज़ियाँ=घाटे और फ़ायदे मामला। रगे-जाँ=हृदय में जाने वाली रक्त की नली ।

हम ने तनहाई को नेमत समझा

हम ने तनहाई को नेमत समझा ।
हिज्र को इश्क़ की दौलत समझा॥
तेरी क़ुरबत उसे मिलती कैसे,
जिसने ग़म को भी मुसीबत समझा॥
ज़ेरे ख़जर हुई लज़्ज़त महसूस,
मानिए-ज़ौक़े-शहादत समझा॥
जब तेरा ज़िक्र ज़ुबाँ पर आया,
हमने मफ़हूमे-इबादत समझा॥
तपते सेहरा में खिले लालओ-गुल,
दिल के टुकड़ों की मैँ क़ीमत समझा॥
सिर्फ़ सुनता रहा तेरी आवाज़,
दिल की धड़कन को तिलावत समझा॥
क़ैद ख़ानों के मनाज़िर देखे,
इसको भी तेरी मशीयत समझा॥
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ہم نے تنہائی کونعمت سمجھا
ہجر کو عشق کی دولت سمجھا
تیری قربت اسے ملتی کیسے
جس نے غم کو بھی مصیبت سمجھا
زیر خنجر ہوئی لذت محسوس
معنیئ ذوق شہادت سمجھا
جب ترا ذکر زباں پر آیا
ہم نے مفہوم عبادت سمجھا
تپتے صحرا میں کھلے لالہ و گل
دل کے ٹکڑوں کی میں قیمت سمجھا
صرف سنتا رہا تیری آواز
دل دھڑکنے کو تلا وت سمجھا
قید خانوں کے مناظر دیکھے
اس کو بھی تیری مشیت سمجھا
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बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा

बत्ने-मादर से ही बे-नूर हुआ था पैदा।
लोग कहते हैं के मजबूर हुआ था पदा॥

हक़ अगर कहता है कोई तो तहे-तेग़ करो,
जाने किस वक़्त ये दस्तूर हुआ था पैदा ॥

क़ल्बे-मूसा को भी शायद मेरा इरफ़ान न था,
मैं तजल्ली हूं लबे-तूर हुआ था पैदा॥

तू-ही-तू सिर्फ़ नज़र आया था मुझको हर सू,
जिस घड़ी ये दिले-रंजूर हुआ था पैदा॥

अर्श से देख के है तेरी ज़मीं कितनी बलन्द,
मैं तेरा हुस्न हूं मग़रूर हुआ था पैदा॥
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بطن مادر سے ہی بے نور ہوا تھا پیدا
لوگ کہتے ہیں کہ مجبور ہوا تھا پیدا
حق اگر کہتا ہے کوئی تو تھ تیغ کرو
جانے کس وقت یہ دستور ہوا تھا پیدا
قلب موسیٰ کو بھی شاید مرا عرفان نہ تھا
میں تجلی ہوں لب طور ہوا تھا پیدا
تو ہی تو صرف نظر آیا تھا مجھ کو ہر سو
جس گھڑی یہ دل رنجور ہوا تھا پیدا
عرش سے دیکھ کہ ہے تیری زمین کتنی بلند
میں ترا حسن ہوں مغرور ہوا تھا پیدا
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बत्ने-मादर=माँ के पेट । बेनूर=अंधा । हक़=सत्य । तहे-तेग़=तलवार के नीचे रखना/क़त्ल कर देना । क़ल्बे मूसा=मूसा के हृदय [हज़रत मूसा यहूदियों और मुसल्मानों के नबी हैं।तूर नामक पहाड़ पर उन्होंने अल्लाह को देखने की इच्छ व्यक्त की और जब वहा>ण एक प्रकाश फूटा [तजल्ली] तो वो उसे बर्दाश्त न कर सके और मूर्च्छित हो गये]। दिले-रजूर=दुखी हृदय । अर्श=अल्लाह का सिंहासन ।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं।
कितना नादाँ हूं शरारों को हवा देता हूं॥
तेरी तालीम से क़ाएम है फ़ज़ीलत मेरी,
इम्तेहाँ हो तो फ़रिश्तों को हरा देता हूं॥
ये करम तेरा है रखता है जो तू मुझको अज़ीज़,
जुज़ मुहब्बत के तुझे और मैं क्या देता हूं॥
मेरी ही ज़ात है मक़्तूल भी क़ातिल भी हूं मैं,
देख अब चेहरे से हर पर्दा उठा देता हूं॥
कैसा इन्साँ हूं के नफ़रत हो तो शमशीर बनूं,
और उल्फ़त हो तो हर लहज़ा दुआ देता हूं॥
इस सदी में भी हूं आदाब का क़ाएल इतना,
बे अदब को मैं निगाहों से गिरा देता हूं॥
दुश्मनों की भी बुराई कभी अच्छी न लगी,
राज़ कैसा भी हो सीने में दबा देता हूं॥
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میں سر عام کھری بات سنا دیتا ہوں
کتنا نادان ہوں شراروں کو ہوا دیتا ہوں
تیری تعلیم سے قایم ہے فضیلت میری
امتحان ہو تو فرشتوں کو ہرا دیتا ہوں
یہ کرم ترا ہے رکھتا ہے جو تو مجھ کو عزیز
جز محبت کے تجھے اور میں کیا دیتا ہوں
میری ہی ذات ہے مقتول بھی قاتل بھی ہوں میں
دیکھ اب چہرے سے ہر پردہ اٹھا دیتا ہوں
کیسا انساں ہوں کہ نفرت ہو تو شمشیر بنوں
اور الفت ہو تو ور لحظہ دعا دیتا ہوں
اس صدی میں بھی ہوں آداب کا قایل اتنا
بے ادب کو میں نگاہوں سے گرا دیتا ہوں
دشمنوں کی بھیبرائی کبھی اچھی نہ لگی
راز کیسا بھی ہو سینے میں دبا دیتا ہوں
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पाकर तुझे ज़माने से पायी है दुश्मनी

पाकर तुझे ज़माने से पायी है दुश्मनी।
दुनिया ने ख़ूब-ख़ूब निभायी है दुश्मनी॥

कुरसी पे जब था मैं तो हरेक को अज़ीज़ था,
अब तो हरेक की निकल आयी है दुश्मनी॥

हाज़िर थे जानो-माल से हर एक के लिए,
सब कुछ गँवा के हमने कमायी है दुश्मनी्॥

मस्लक के नाम पर कभी मज़हब के नाम पर,
किन पस्तियों में देखिए लायी है दुश्मनी॥

अच्छी बहोत है फिर भी नहीं है हमें पसन्द,
उर्दू ज़बान से हमें भायी है दुश्मनी॥
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कौन था उसके सिवा जिसकी सताइश करता।

कौन था उसके सिवा जिसकी सताइश करता।
बुत भी होता वो अगर, उसकी परस्तिश करता॥

लग़ज़िशे-आदमे-ख़ाकी का नतीजा है बशर,
कैसे इनसान न फिर बारहा लग़ज़िश करता॥

अब्दो-माबूद के रिश्ते हैं गुनाहों से बलन्द,
बख़्शता सारे गुनह वो जो मैं ख़्वाहिश करता॥

सामने देख के उसको मैं उसी में गुम था,
लब को था होश कब इतना के वो जुम्बिश करता॥

ग़ैर होता तो न दिलचस्पियाँ होतीं मुझ में,
दोस्त होता न अगर वो तो न साज़िश करता॥

काश बदले हुए हालात का होता एहसास,
कामियाबी के लिए कुछ तो मैं काविश करता।
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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है

हवाएं आज भी ज़ुल्मत-बदोश चलती है।
हरेक सम्त फ़िज़ाएं लहू उगलती हैं॥

मैं रेगज़ारों से होकर यहाँ तक आया हूं,
तमाम ज़िन्दगियाँ करवटें बदलती हैं॥

कहाँ वो नदियाँ हैं जो मुद्दतों से प्यासी हैं,
कहाँ वो किरनें हैं जो दिन ढले निकलती हैं॥

पहेन-पहेन के शबो-रोज़ एक ख़स्ता लिबास,
हमारे सामने बेचैनियाँ टहलती हैं॥

हटाओ सीने से अब आहनी चटानों को,
तपिश से दर्द की हर लम्हा ये पिघलती हैं॥

गुज़र गया वो अगर सामने से क्या ग़म है,
ये हसरतें भी अजब हैं के हाथ मलती हैं।
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