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शनिवार, 3 अप्रैल 2010

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं

मैं सरे-आम खरी बात सुना देता हूं।
कितना नादाँ हूं शरारों को हवा देता हूं॥
तेरी तालीम से क़ाएम है फ़ज़ीलत मेरी,
इम्तेहाँ हो तो फ़रिश्तों को हरा देता हूं॥
ये करम तेरा है रखता है जो तू मुझको अज़ीज़,
जुज़ मुहब्बत के तुझे और मैं क्या देता हूं॥
मेरी ही ज़ात है मक़्तूल भी क़ातिल भी हूं मैं,
देख अब चेहरे से हर पर्दा उठा देता हूं॥
कैसा इन्साँ हूं के नफ़रत हो तो शमशीर बनूं,
और उल्फ़त हो तो हर लहज़ा दुआ देता हूं॥
इस सदी में भी हूं आदाब का क़ाएल इतना,
बे अदब को मैं निगाहों से गिरा देता हूं॥
दुश्मनों की भी बुराई कभी अच्छी न लगी,
राज़ कैसा भी हो सीने में दबा देता हूं॥
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میں سر عام کھری بات سنا دیتا ہوں
کتنا نادان ہوں شراروں کو ہوا دیتا ہوں
تیری تعلیم سے قایم ہے فضیلت میری
امتحان ہو تو فرشتوں کو ہرا دیتا ہوں
یہ کرم ترا ہے رکھتا ہے جو تو مجھ کو عزیز
جز محبت کے تجھے اور میں کیا دیتا ہوں
میری ہی ذات ہے مقتول بھی قاتل بھی ہوں میں
دیکھ اب چہرے سے ہر پردہ اٹھا دیتا ہوں
کیسا انساں ہوں کہ نفرت ہو تو شمشیر بنوں
اور الفت ہو تو ور لحظہ دعا دیتا ہوں
اس صدی میں بھی ہوں آداب کا قایل اتنا
بے ادب کو میں نگاہوں سے گرا دیتا ہوں
دشمنوں کی بھیبرائی کبھی اچھی نہ لگی
راز کیسا بھی ہو سینے میں دبا دیتا ہوں
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