रविवार, 28 जून 2009

बांसुरी की तान में जीवन की व्याख्याएँ मिलीं.

बांसुरी की तान में जीवन की व्याख्याएँ मिलीं.
आके जमुना तट पे कुछ मीठी निकटताएँ मिलीं.

मेरे अंतर में तो बस गोकुल की छवियाँ थीं मुखर,
जब जहां झाँका मुझे कान्हा की लीलाएँ मिलीं.

राधिका बरसाने में जबतक थीं सब सामान्य था,
जब मिलीं घनश्याम से नूतन मधुरिमाएँ मिलीं.

पांडवों ने सार्थी को चुन लिया, विजयी हुए,
कौरवो ने सैन्य-दल चाहा, विफलताएँ मिलीं.

स्वार्थवश जो युद्ध में कूदे कलंकित हो गए
न्याय पर स्थिर रहे जो उनको गरिमाएँ मिलीं.

लोग कहते हैं हुआ शैलेश ज़ैदी का निधन,
उसके घर कुछ भी न था बस चन्द कविताएँ मिलीं.
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शनिवार, 27 जून 2009

दरिया की गुहर-खेज़ियाँ कब देती हैं आवाज़.

दरिया की गुहर-खेज़ियाँ कब देती हैं आवाज़.
आँखों में ये जब हों तो अजब देती हैं आवाज़.

है तश्ना-लबी चाहे-ज़नखदाँ के सबब से,
प्यासी हैं बहोत धड़कनें जब देती हैं आवाज़.

बज़्मे-लबो-रुखसार में जज़बात की कलियाँ,
बेसाख्ता खिलने के सबब देती हैं आवाज़.

किसके थे मकाँ, इनमें लगाई गयी क्यों आग,
मजबूरियाँ हैं मुह्र-बलब, देती हैं आवाज़.

कुरते के बटन टूटे हैं टांकेगा उन्हें कौन,
तनहाइयां क्यों यादों को अब देती हैं आवाज़.

खलियानों में है ढेर अनाजों का तो क्या है,
कुछ झोंपडियाँ गौर-तलब देती हैं आवाज़.
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गुहर-खेज़ियाँ = मोतियों से भरा होना, तश्ना-लबी = प्यास, चाहे-ज़नखदाँ = ठोढी के कुंएं, बे-साख्ता = सहज रूप से, मुह्र-बलब = मौन,

उल्झे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.

उलझे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.
अजनबी बन के फिरे कूचओ-बाज़ार में हम.

आहनी तौक़ पिन्हाया गया गर्दन में हमें,
और रक्खे गए जिन्दाने-शररबार में हम.

हम थे फनकार ये हमने कभी दावा न किया,
होके महदूद रहे अपने ही घर बार में हम.

आबलापाई के अंदेशों से गाफ़िल न हुए,
शौक़ से बढ़ते रहे वादिये-पुरखार में हम.

भारी पत्थर के तले दब के भी टूटे न कभी,
और घबराए न घिर कर कभी मंजधार में हम.

चीख की तर्ह बियाबानों में गूंजे हर सिम्त,
मुस्कुराते नज़र आये दिले-ग़म-ख्वार में हम.
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शुक्रवार, 26 जून 2009

सच्चाइयां ज़रा भी बयानात में न थीं.

सच्चाइयां ज़रा भी बयानात में न थीं.
फिर भी वो सामईन के शुबहात में न थीं.

पाबंदियां शरीअते-इस्लाम की कहीं,
हिन्दोस्ताँ-मिज़ाज रुसूमात में न थीं.

गौतम के बुत तराश रहा था मैं ख्वाब में,
किरनें मताए-कुफ्र की जज़बात में न थीं.

मैं जितनी देर तुझसे रहा महवे-गुफ्तगू,
तेरे सितम की चोटें खयालात में न थीं.

उन बस्तियों में सिर्फ अँधेरे थे मौजज़न,
कुछ जिंदा आहटें भी मकानात में न थीं.

उस से तअल्लुकात थे हमवार बे-पनाह,
जो तलखियाँ हैं आज, शुरूआत में न थीं.

आखिर मुसीबतों को है क्या मुझसे दुश्मनी,
पहले तो इस तरह ये मेरी घात में न थीं.

मंजधार में भी दिल का सफ़ीना नहीं रुका,
मजबूरियाँ कभी मेरे हालत में न थीं.
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बयानात = वक्तव्यों, सामईन = श्रोताओं, शुबहात = संदेहों, पाबंदियां = प्रतिबन्ध, शरीअते-इस्लाम = इस्लामी धर्म-संहिता, हिन्दोस्ताँ-मिज़ाज = भारतीय स्वभाव वाले, रुसूमात = रीति-रिवाजों, मताए-कुफ्र = काफिर होने की दौलत, महवे-गुफ्तगू= बातचीत में व्यस्त, थे मौजज़न = लहरें मार रहे थे, सफ़ीना = कश्ती.

अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.

अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.
आग तन-मन में लगी थी भुन रही थी दोपहर.

हो चुकी है अब ये धरती और सूरज के करीब,
बस इसी चिंता में पागल सी हुयी थी दोपहर.

बर्फ ही पिघले हिमालय से तो कुछ संतोष हो,
होके बेकल मन-ही-मन में सोचती थी दोपहर.

आ गयी नीचे बहोत नदियों के पानी की सतह,
प्यास से बेचैन कर्मों की जली थी दोपहर.

लेप चन्दन का कहीं से आके कर जाती हवा,
हर दिशा में याचना करती फिरी थी दोपहर.
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गुरुवार, 25 जून 2009

सुलाने के लिए तारों भरी रातें नहीं आतीं.

सुलाने के लिए तारों भरी रातें नहीं आतीं.
मुझे वातानुकूलित कक्ष में नींदें नहीं आतीं.

न जाने कब से सूखे हैं हमारे गाँव के पोखर,
नहाने अब वहां चांदी की पाज़ेबें नहीं आतीं.

कोई पौधा कभी बरगद की छाया में नहीं पनपा,
कि उस को धूप देने सूर्य की किरनें नहीं आतीं.

मैं यादों के सहारे धुंधले खाके तो बनाता हूँ,
उभर कर फिर भी वो बचपन की तस्वीरें नहीं आतीं.

हमारी चाहतों में ही कहीं कोई कमी होगी,
किसी निष्कर्ष पर चिंतन की बुनियादें नहीं आतीं.

ये संबंधों की दुनिया ठोस भी है देर-पा भी है,
मगर जब दोनों पक्षों से कभी शर्तें नहीं आतीं.
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भँवरे, तितली, मधुमक्खी सब अपनी धुन में मस्त रहे.

भँवरे, तितली, मधुमक्खी सब अपनी धुन में मस्त रहे.
हम उद्देश्य रहित थे, भटके एकाकी, संत्रस्त रहे.

पुरवाई की शीतलता से रहे अपरिचित सारी उम्र,
लू के तेज़ थपेडों में श्रम करने के अभ्यस्त रहे.

बादल में पानी थे, खेतों में फसलों की आशा थे,
फूलों की अंगड़ाई में खुशबू बनकर पेवस्त रहे.

सीता जी के आंसू पोंछे तो मन को संतोष मिला,
माँ के आशीषों में पंडित ब्रज नारायन चकबस्त रहे.

रमते जोगी थे, गृहस्थ जीवन की माया से थे मुक्त,
अलख जगाया, प्रेम रसायन पीकर मस्त-अलस्त रहे.

पत्थर का टुकडा थे फिर भी आँखें मूँद नहीं पाए,
हमें हटाने की इच्छा से आये जो भी ध्वस्त रहे.
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बुधवार, 24 जून 2009

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.
दश्ते-तहय्युरात में तारीकियाँ नहीं.

मैं खुद से हमकलाम रहूँ कितनी देर तक,
महफ़िल में कोई शख्स मेरा हमज़ुबां नहीं.

महदूद होके रह गया मैं अपनी ज़ात में,
क्या शिकवा ज़िन्दगी का अगर जाविदाँ नहीं.

समझाऊं कैसे सोज़िशे-दिल की मैं कैफ़ियत,
ये आग इस तरह की है जिसमें धुआँ नहीं.

बेहतर तअल्लुक़ात हुए हैं कुछ इन दिनों,
पहले की तर्ह मुझ पे वो ना-मेहरबां नहीं.

माना के खस्ताहाली में गुज़री है ज़िन्दगी,
लेकिन कभी किसी पे था बारे-गरां नहीं.

उफ़ क्या तपिश है धूप में शिद्दत बला की है,
ज़िन्दा हैं, गो सरों पे कोई सायबाँ नहीं.
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सोमवार, 22 जून 2009

इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.

इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.
दारो-रसन का हो न उसे क्यों बला का शौक़.

देखे कभी कोई मेरी ज़ंजीर-पा का शौक़.
इन्सां की बेहतरी के लिए है दुआ का शौक़.

खुद भूके रहके बच्चों को सब कुछ खिला दिया,
कुर्बानियों में पलता रहा मामता का शौक़.

कर लेते हैं वो मौत से पहले कुबूल मौत,
जिनके दिलों में होता है उसकी रिज़ा का शौक़.

ज़िक्रे-ख़फी से रूह की दुनिया बदल गयी,
रुखसत हुआ मिज़ाज से हिर्सो-हवा का शौक़.

नैजे की नोक पर भी रहा सर-बलंद मैं,
खंजर तले भी दब न सका कर्बला का शौक़.

दो-जिस्म खुशबुओं को मिलाकर है खुश बहोत,
हैरत से देखता हूँ मैं बादे-सबा का शौक़.
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इज़हारे-हक़ = सत्य की अभिव्यक्ति, इन्तेहा = चरम सीमा तक, दारो-रसन = हथकडी-बेडी और सूली, बला = अत्यधिक, ज़ंजीरे-पा = पाँव की ज़ंजीर, रिज़ा = स्वीकृति, ज़िक्रे-खफ़ी = मौन-साधना, हिर्सो-हवा = लोभ लालच, प्रातः की पुरवा हवा.

अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य : पुष्प / 4 ]

पुष्प - 4 : चिन्तन के अन्तरिक्ष

[एक ]
लोग कहते हैं कि विधाता चुनता है
अपनी इच्छानुरूप आदमी को
और लाद देता है उस पर
दुःख- सुख की गठरी,
जिसे चुपचाप ढोने की प्रक्रिया
बन जाती है आदमी की नियति.
और इस नियति पर
नहीं होता आदमी का कोई नियन्त्रण
लोग क्यों नहीं सोचते
कि आदमी के हर निर्णय के साथ
जुड़ा है एक इतिहास
और यह इतिहास करता है रेखांकित
आदमी का आदमी से जुड़ना,
जुड़कर अलग होना,
अलग होकर जुड़े रहना.
इतिहास का यह रेखांकन
बताता है बैर और मैत्री के सन्दर्भ,
सन्दर्भों में निहित मूल्य,
मूल्यों के निर्माण में सक्रिय भूमिकाएँ.
इतिहास कभी थोपता नहीं आदमी पर
होनी अनहोनी घटनाएँ.
बल्कि छोड़ देता है उसे स्वतन्त्र
कुछ चुनने और न चुनने के बीच.
आदमी की यही स्वतन्त्रता
बनाती है उसकी पहचान
और यह पहचान ही करती है रूपायित
आदमी की नियति का ढाँचा.

लक्ष्मण के माथे पर खिंची रेखाएँ,
बनाना चाहती थीं
इतिहास का कुछ और नक्शा.
टूट रहे थे उस नक्शे में
पिता और पुत्र के सम्बन्ध,
टूट रही थीं पुरानी मान्यताएँ ,
आ रही थी विद्रोह की गन्ध.
पर वह, जिसे कहते हैं लोग
मर्यादा पुरूषोत्तम,
जिसे मानता हूँ मैं
तमाम संस्कृतियों का उद्गम,
जिसे पाया है मैंने
स्वार्थमुक्त , सुन्दर और अनुपम.
वह भी बना रहा था एक नक्शा.
और यह नक्शा
बहुत अलग था लक्ष्मण के नक्शे से.
इसमें राजगद्दी की जगह था एक वन- खण्ड ,
विद्रोह की जगह था प्रेम और भाई चारा .
यह नक्शा आम आदमी के लिए था एक सहारा
लक्ष्मण ने ध्यान से देखा था इस नक्शे को
इसकी एक- एक लकीर को
ढीली पड़ गयीं लक्ष्मण के माथे की तनी रेखाएँ
ढीली पड़ गयीं भिंची हुई मुट्ठियाँ
और मुट्ठियों में बन्द भावी योजनाएँ

कुछ चुनने और न चुनने के बीच खड़े लक्ष्मण
खोजने लगे अपनी पहचान
राम के नक्शे के भीतर
महल के एक तारीक झरोखे में खड़ी उर्मिला
देख रही थी लक्ष्मण की आँखों में
इतिहास का बदलाव
बन्धुत्त्व के स्नेहानुबन्ध का गहराता सागर
और उस सागर का बहाव
फैल गयी थीं उसकी आँखों के सामने
ढेर सारी तस्वीर

[दो ]
लोग कहते हैं कि अपने सतीत्व के सबूत में
सीता को देनी पड़ी थी अग्नि परीक्षा
और यह परीक्षा ही उतार पायी थी
राम की तनी हुई भौंहों की प्रत्यंचा
लोग शायद नहीं जानते अग्नि परीक्षा का अर्थ
लोग शायद नहीं जानते
आग में तपकर कुन्दन हो जाने की कला
दहक रही थी लंका में राम के विरुद्ध
शत्रुता की जो आग
सीता तपी थीं उस आग के भीतर
और नहीं आ सकी थी
उनके व्यक्तित्व पर कोई आँच
सीता ने बता दिया था
कि आदमी के लिए जरूरी है
आग के बीच से होकर गुजरना
और इस गुजरने में
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना

फिर वह, जिसे गुजरना पड़ा हो
चौदह वर्षों की विरहाग्नि के बीच से होकर
और जो निकल आया हो
इस आग के भीतर से बेदाग
लोगों को चाहिए कि उससे पूछें
क्या होती है जीवन की अग्निपरीक्षा
क्या होता है अग्नि परीक्षा से गुजरना
और इस गुजरने के बीच
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना

राम और लक्ष्मण का
मात्र एक निर्णय
छोड़ गया उर्मिला के पास
तपस्या के लिए एक दहकता वन -प्रान्तर
और कंचन जैसा उर्मिला का व्यक्तित्व
सहज ही तब्दील हो गया कुन्दन में
एक लम्बी अग्नि परीक्षा में तप कर

[तीन ]

मैं देख रहा हूँ राजभवन की सियाह दीवारें
दीवारों से चिपके दशरथ की मृत्यु के भयावह चित्र
चित्रों की हथेली पर उगा हुआ एक जंगल
जंगल में दौड़ते भूखे पशु.
मैं देख रहा हूँ घने पेड़ों के बीच से झाँकती
नियति की लाल -लाल आँखें
आँखों में जमा हुआ रक्त
रक्त से फूटती मृत्यु की दुर्गन्ध
मैं देख रहा हूँ उर्मिला के मर्म की पर्तों में जलता
सम्पूर्ण राजभवन
भवन में फैलती आग की लपटें
लपटों के बीच चिटखता
दशरथ का पार्थीव शरीर
चल रहे हैं जिस पर
वरदानों के अग्नि-बाण
राजभवन के भीतर और बाहर
रह गई शेष केवल राख.
कीर्ति के वैभव का इतिहास
राजभवन से दूर
जी रहा है अरण्य-संस्कृति .

मैं देख रहा हूँ
कि सूने सपाट मैदान में बैठी उर्मिला
अंगुलियों से कुरेद रही है जलती हुई राख
धरती की आह बन गयी है एक शब्द
‘राख के ढेर में षोला है न चिंनगारी है '
किन्तु उर्मिला के भावी जीवन की राख
अभी सर्द नहीं हो पायी है
वह जानती है
धरती के संवेदनषील वक्ष में भर देना
अपने चिंतन की हरारत,
अपनी ओजस्विता का ताप.
क्योंकि उसमें अभी शोला भी है
और चिंगारी भी
क्योंकि उसकी माँग का सिन्दूर
राम और सीता का अंगरक्षक बनकर
जी रहा है एक गौरवपूर्ण जिन्दगी .

[चार ]
मैके में संजोई गई आनन्द की स्थितियाँ
ससुराल की त्रासदी में
मेंहदी की तरह पिस कर
हो रही हैं आतुर
विकीर्ण करने को एक नयी लालिमा
दायित्व के तेज और संकल्प की गरिमा ने
तोड़ दी हैं सुषुप्तावस्था की चौहद्दियाँ
उभर आया है नारी का समूचा व्यक्तित्व.
सखियों के मध्य घिरी उर्मिला
कौशल्या और सुमित्रा का ममत्व
और माण्डवी का स्नेह पाकर
लक्ष्मण प्रवास के दुखद घेरे से
निकल आई है बाहर .
राजभवन से जंगल की ओर जाने वाला मार्ग
करने लगा है व्याख्यायित
कर्म योग का एक-एक पहलू
फैल रही है आहिस्ता-आहिस्ता
गुलाबों की खुषबू .

[पाँच ]
आकाश सिमठ कर आ गया है
उर्मिला की मुठ्ठी में ,
खुल गए हैं चेतना के सारे गवाक्ष.
गुनगुनाता है चिन्तन के अन्तरिक्ष में
एक पक्षी .
गोद को हरी-भरी देखना कौन नहीं चाहता
कौन नहीं चाहता बनाना
वात्सल्य की एक तस्वीर
शिशु के लिए बनाती है जब कोई गोद
छोटा सा एक दायरा
तो सामने आ जाता है ममत्व का खाका
और जब यह दायरा
हो जाता है कुछ बड़ा
और समेट लेता है अपने भीतर सम्पूर्ण धरती
तो गहरी हो जाती है विश्वबंधुत्व की रेखाएँ
आदमी को दायरों में बाँटकर देखना
कर देता है धरती को बहुत छोटा
और धरती जब हो जाती है
आदमी के लिए बहुत छोटी
तो पड़ जाती है आदमी और आदमी के बीच दरारें.

दूसरों का दुख होता है
अपने दुख से कहीं अधिक गहरा
पर उस गहराई को आँकने के लिए
जरूरी है आदमी में वह संवेदनशीलता
जो उठाती है आदमी और धरती को बहुत ऊँचा
और धरती और आदमी के संयोग से
जिन्दगी को मिल जाती है एक परिभाषा. '

[छः ]
मैं देखता हूँ चेतना के गवाक्षों में
उर्मिला के चिन्तन का समूचा अन्तरिक्ष
सुनता हूँ अन्तरिक्ष में बजती
जलतरंग की धुनें,
धुनों में हो जाता हूँ गिरफतार
पहन लेता हूँ आवाजों की हथकड़ियाँ
राजवधू बनकर जीवन काट लेना
कहीं अधिक सरल है
जन हिताय जीने से
विष उंडेल देने से बनती नहीं आदमी की पहचान
आदमी की पहचान बनती है विष पीने से.
देश के नक्शे की लकीरें
बांधती हैं सीमाओं में आदमी को
और देश की धरती सिखाती है आज़ादी
आदमी देता है नक्शे की लकीरों को रूप और आकार
आदमी को रूप और आकार देती है धरती.

मैं देखता हूँ उर्मिला को पूरी तरह आश्वस्त
विरह की धधकती ज्वालाएं
नहीं कर पातीं उसे पीड़ित और संत्रस्त.
आदमी जानता है जब धरती के यथार्थ से आँखें मिलाना
तो सिमट जाता है उसकी चेतना में समूचा युग
उर्मिला ने देखा है अपने समूचे युग को
अपनी चेतना के गवाक्षों के भीतर
उसने पहचाना है
धरती के यथार्थ का एक-एक अक्षर.
[ सात ]
दलितों की बस्ती में
नाचती हैं जहाँ सूर्य की किरणें
थिरकती हैं जीवन की रश्मियाँ
कमसिन, जवान और नंगे अंधेरे जहाँ
हँसते हैं प्रकाशयुक्त सहज हँसी
देखता हूँ मैं
कि तैरती है वहाँ की हवा में उर्मिला
सुगंध पुंज बनकर
देखता हूँ मैं कि एक हरी क्रांति
फूटती है धरती से
भर जाती है झोंपडियों के भीतर.
राजभवन आ गया है झुक कर
कच्चे मकानों और फूस के घरों के बराबर.
शबरी के साथ राम करते हैं भोजन.
उर्मिला के माध्यम से अयोध्या में
झुक गया है नीआम्बर,
धरती के चरणों पर.
खोजती हैं सूर्य की किरणें
अपनी उम्र का एक हिस्सा
उर्मिला की सांसों में,
धुंध रहित शामों में,
धुली हुई सुब्हों में,
चमकीली दुपहरियों में.
इतिहास दब गया है वर्त्तमान के नीचे
और हावी हो गई है
देश के मानसून पर कविता
और यह कविता रुदन नहीं है
साधना है
जो खोलती है चिंतन के अन्तरिक्ष.
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