उलझे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.
अजनबी बन के फिरे कूचओ-बाज़ार में हम.
आहनी तौक़ पिन्हाया गया गर्दन में हमें,
और रक्खे गए जिन्दाने-शररबार में हम.
हम थे फनकार ये हमने कभी दावा न किया,
होके महदूद रहे अपने ही घर बार में हम.
आबलापाई के अंदेशों से गाफ़िल न हुए,
शौक़ से बढ़ते रहे वादिये-पुरखार में हम.
भारी पत्थर के तले दब के भी टूटे न कभी,
और घबराए न घिर कर कभी मंजधार में हम.
चीख की तर्ह बियाबानों में गूंजे हर सिम्त,
मुस्कुराते नज़र आये दिले-ग़म-ख्वार में हम.
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शनिवार, 27 जून 2009
उल्झे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.
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