शनिवार, 4 अक्टूबर 2008
वो लोग जो ज़िन्दा हैं / साक़ी फ़ारूक़ी
शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008
परदेसों से चन्द परिंदे
खुश होकर घर-आँगन कैसा चहके थे कुछ रोज़ हुए।
मीठी-मीठी यादों के कुछ आवारा मजनूँ साए,
कड़वे-कड़वे सन्नाटों में चीखे थे कुछ रोज़ हुए।
नर्म-नर्म, उजले बादल के, रूई के गालों जैसे,
जाज़िब टुकड़े, आसमान से उतरे थे कुछ रोज़ हुए।
प्यारी-प्यारी खुशबू से था भरा-भरा माहौल बहोत,
कैसे-कैसे फूल फ़िज़ा में महके थे कुछ रोज़ हुए।
ख्वाब हकीकत बन जाते हैं आज मुझे महसूस हुआ,
ख़्वाबों में खुशरंग मनाजिर देखे थे, कुछ रोज़ हुए।
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दिन ढल चुका था और.. / वज़ीर आगा
दुश्मनी हिन्दी से थी
दुश्मनी हिन्दी से थी, मारे गए मासूम लोग।
कैसे इस सूबा परस्ती से न हों मगमूम लोग।
एक जानिब हैं लक़ो-दक़ खुशनुमां उम्दा मकां,
दूसरी जानिब हैं खपरैलों से भी महरूम लोग।
एक अरसे से हिरासत में हैं कितने बेगुनाह,
क्या खता थी, कर न पाये आज तक मालूम लोग।
ज़िन्दगी की तेज़गामी का नहीं देते जो साथ,
ज़िन्दगी में ही समझते हैं उन्हें मरहूम लोग।
खुदसे जितना प्यार करते हैं, करेंगे मुझसे भी,
जान लेंगे जब मेरे अशआर का मफ़हूम लोग।
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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008
वो जिसका रंग सलोना है / सादिक़ नसीम
बुधवार, 1 अक्टूबर 2008
ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ ?
हुआ यूँ कि दर साहब की घुमक्कड़ प्रकृति ने व्यापार के बहाने उन्हें बांग्लादेश जाने के लिए उकसाया. यह बात आज से लगभग दो वर्ष पूर्व की है.ज़ाहिर है कि दर उस समय सत्ताईस वर्ष के एक खूबसूरत नौजवान थे. वे कश्मीरी व्यापारी ज़रूर थे किंतु उनके पासपोर्ट पर हिन्दुस्तानी होने का ठप्पा लगा था. हो सकता है उनकी आंखों से भी उनकी हिंदुस्तानियत चुगली कर रही हो. बांग्लादेशियों को उनमे एक भारतीय जासूस छुपा दिखायी दिया. बात तो सिर्फ़ देखने की है. हम आप भी किसी में कुछ भी देखने के लिए आजाद हैं. अब क्या था. 15 सितम्बर 2006 को बांगलादेशी अधिकारियों ने तारिक अहमद दर को भारतीय रिसर्च एंड अनालिसिस विंग का एजेंट घोषित करके जेल में डाल दिया. खुदा-खुदा करके किसी प्रकार चालीस दिनों के बाद आज़ादी मिली.किंतु उनके पैरों की कई नसें सुन्न पड़ चुकी थीं. कारागार और पुलिस की पूछ-ताछ का पुरस्कार तो मिलना ही था. दस्तकारियों के गट्ठर का क्या हुआ, यह बताना और भी मुश्किल है. दर साहब को हर समय महसूस होता था जैसे कोई हिन्दुस्तानी फिल्मों के मस्त मलंग बाबा की तरह कहीं नेपथ्य में गा रहा हो -"ले जाये किसको कब ये मुक़द्दर कहाँ-कहाँ.”
पेशानी पर खिंची तनाव की लकीरों से मुक्त होने के विचार से तारिक दर ने सर को हल्का सा झटका दिया औए खुली हवा के एहसास को साँसों में भरते हुए खुदा का शुक्र अदा करके वापस हिंदुस्तान लौटने के विचार से एअर-पोर्ट पहुंचे. दिल्ली तक की यात्रा अच्छी कट गई. लेकिन अब इसे क्या कहिये. लोगों ने शायद ठीक ही कहा है कि परीशानियाँ कभी अकेले नहीं आतीं. अल्लाह मियाँ के मंत्रालय का सेक्शन आफीसर परीशानियों की फाइल खोलकर बैठा ही था की किसी ज़रूरी काम से साहब ने उसे बाहर भेज दिया. अब यह फाइल बंद कौन करे.
दिल्ली एअर-पोर्ट पर भारतीय पुलिस तारिक अहमद दर की प्रतीक्षा कर रही थी. खुफिया विभाग की पुख्ता रिपोर्ट थी कि तारिक अहमद दर प्रतिबंधित लश्करे-तैयेबा से गहरा राब्ता रखते हैं. एक खतरनाक आतंकवादी घोषित करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कड़ी सुरक्षा में तिहार जेल भेज दिया गया. बांग्लादेश की ही तरह यहाँ भी उनका स्वागत-सत्कार हुआ. वह तो कहिये कि हिन्दुस्तान टाइम्स को इसकी भनक लग गई. 24 जनवरी 2007 को तारिक अहमद दर का मर्सिया छापकर अखबार ने उनके आजाद होने की कुछ संभावनाएं बनायीं. आशाओं की खिड़कियाँ खुलने लगीं. और अंत में चीफ मेट्रोपालिटन मजिस्ट्रेट सीमा मैनी ने उन्हें आजाद करते हुए कहा-" मैं अपने आपको यह महसूस करने से नहीं रोक पा रही हूँ कि यह कितनी विडम्बनापूर्ण और दुखद स्थिति है कि एक भारतीय नागरिक को नववे दिनों तक कारागार में रखा गया जो किसी भी बेगुनाह के लिए आजीवन कारावास से कम नहीं है."
तारिक अहमद दर तिहार जेल से मुक्त ज़रूर हो गए किंतु ढेर सारे प्रश्नों की एकमुखी रुद्राक्ष उनके गले में आज भी लटकी हुई है जो समय-असमय सतर्क करती रहती है. हस्त-शिल्प के व्यापार से सम्बद्ध जब वह किसी भी यात्रा पर निकलते हैं तो सुरक्षा-कवच के रूप में अखबारों की कटिंग और मजिस्ट्रेट के आदेश की पक्की नक़ल अपने साथ रखना नहीं भूलते. जब भी कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है उनके दोनों हाथ यंत्रवत आसमान की ओर उठ जाते हैं-" या अल्लाह ! मेरे दिल की धड़कनें रुक सी गई हैं. मैं अपनी आँखें बंद करके तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि कहीं वह मेरी ही तरह का एक इंसान न हो."
मंगलवार, 30 सितंबर 2008
करतब कमाल का था
करतब कमाल का था, तमाशे में कुछ न था।
बच्चे के टुकड़े कब हुए, बच्चे में कुछ न था।
सब सुन रहे थे गौर से, दिलचस्पियों के साथ,
फ़न था सुनाने वाले का, क़िस्से में कुछ न था।
नदियाँ पहाड़ सब थे मेरे ज़हन में कहीं,
नक्शे में बस लकीरें थीं, नक्शे में कुछ न था।
दिल में ही काबा भी था, खुदा भी, तवाफ़ भी,
दिल में न होता काबा, तो काबे में कुछ न था।
किस सादगी से उसने मुझे दे दिया जवाब,
ख़त आया उसका, और लिफ़ाफ़े में कुछ न था।
क़ायम थी मेरी ज़ात, खुदा के वुजूद से,
वरना तो एक मिटटी के ढाँचे में कुछ न था।
परदा हटा तो हुस्ने-मुजस्सम था बेनकाब,
परदा मेरी नज़र का था, परदे में कुछ न था।
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दिल के सहरा में / नूर बिजनौरी
सोमवार, 29 सितंबर 2008
सोंच और विचार
कितने भिन्न हैं मेरे और उसके विचार!
उसे मेरे शब्दों में आक्रोश की झलक मिलती है,
हो सकता है वह ठीक हो,
हो सकता है मेरा आहत मन
उसे न छू सका हो.
और यह भी हो सकता है,
कि मैंने ही उसे गलत समझा हो,
ग़लत सन्दर्भों में रखकर देखा हो.
किंतु, सोंचता हूँ मैं-
कि जहाँ-जहाँ मेरा मन आहत होता है,
उसका क्यों नहीं होता ?
वह भी तो मेरी ही तरह सोंचता है।
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