अब दर्द का सूरज कभी ढलता ही नहीं है।
ये दिल किसी पहलू भी संभलता ही नहीं है।
बे-चैन किए रहती है जिसकी तलबे-दीद
अब बाम पे वो चाँद निकलता ही नहीं है।
एक उम्र से दुनिया का है बस एक ही आलम
ये क्या कि फलक रंग बदलता ही नहीं है ।
नाकाम रहा उनकी निगाहों का फुसून भी
इस वक्त तो जादू कोई चलता ही नहीं है।
जज़बे की कड़ी धुप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है।
********************************
बुधवार, 27 अगस्त 2008
मंगलवार, 26 अगस्त 2008
सूर दास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 6]
[36]
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै.
जैसे उडि जहाज कौ पंछी, पुनि जहाज पै आवै..
कमल नैन कौ छांडि महातम, और देव को धावै..
परम गंग कौ छांडि पियासो, दुरमति कूप खनावै..
जिन मधुकर अम्बुज रस चाख्यो, क्यों करील फल खावै..
'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै..
मेरे क़ल्ब को किसी और जा, मिले किस तरह से भला सुकूँ
जैसे उड़ के पंछी जहाज़ का, हो सदा जहाज़ पे सर नगूँ
वो कमल नयन है, रुख उसके फैजो-करम की सिम्त से मोड़कर
किसी और देवता की तरफ़, कोई दौड़-दौड़ के जाये क्यूँ
जो अगर कहीं कोई तशना-लब, फिरे आबे-गंगा को छोड़कर..
किसी चाह्कन की तलाश में, तो उसे बद-अक़्ल न क्यों कहूँ
जो हलावते-गुले-नीलोफ़र, का मज़ा उठा ले वो भंवरा फिर
किसी खारदार दरख्त का, कोई कड़वा फल भला खाए क्यूँ
जिसे 'सूरदास' मिला हो सूरते-कामधेनु क़दीरे-हक़
उसे शीरे-बुज़ के निकालने का हो अह्मक़ाना सा क्यों जुनूँ
[37]
कृपा अब कीजिये बलि जाऊं.
नाहिन मेरे और कोऊ बल, चरन कमल बिन ठाऊं ..
हौं असोच, अकृत, अपराधी, सनमुख होत लाजाऊं ..
तुम कृपालु, करुनानिधि, केशव, अधम उधारन नाऊं..
काके द्वार जाई होइ ठाढऔं, देखत काहु सुहाऊं ..
अशरण शरण नाम तुमरो हौं, कामी कुटिल सुभाऊं..
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं, सेत-मेत न बिकाऊं..
'सूर' पतित पावन पद अम्बुज, क्यों सो परिहरि जाऊं..
अब करम कीजिये मैं आपके कुरबां जाऊं.
मेरा कोई भी नहीं पुश्त-पनाही के लिए
बस कँवल जैसे ही चरनों में ठिकाना पाऊं..
मैं खतावार भी, बे-अक़्ल भी , नादान भी हूँ..
सामने आपके आने में बहोत शरमाऊं..
आप रहमान हैं, केशव हैं, शिफ़ाअत में हैं ताक़
बख्श देते हैं मुहब्बत से रियाकारों को
किसके दरवाज़े पे मैं जाके खडा हो जाऊं
इक नज़र भी ये किसी को न कभी भायेगा
बेसहारों का सहारा है फ़क़त आपकी ज़ात.
आपके दर से मिला करती है बन्दों को निजात
बंदए-नफ़्स हूँ, शातिर हूँ, तबीअत है बुरी
मुफ्त में भी मुझे हरगिज़ न खरीदे कोई
'सूर' हो जाये अगर पाए-मुक़द्दस का करम
ठोकरें क्यों मैं किसी और के दर की खाऊं..
[38]
अब मैं जानी देह बुढानी.
सीस, पाँउ, कर कह्यो न मानत, तन की दसा सिरानी..
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन नाक बहै पानी..
मिटि गई चमक-दमक अंग-अंग की, मति अरु दृष्टि हिरानी
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जू बात बिरानी..
'सूरदास' अब होत बिगूचनि, भजि लै सारंग पानी..
जिस्म की ज़ईफी का, अब मुझे हुआ एहसास
हाथ-पाँव सर को अब, हुक्म का नहीं कुछ पास
तन की कैफियत ये है, खो चुका है सारी आस
कहना और से हो तो, और से हूँ कह आता..
नाक-आँख से पानी, ज़ोफ़ से हूँ टपकाता..
एक-एक अज़्वे-बदन, खो चुका है रानाई
कूवते-बसारत भी, अक़्ल भी नहीं बाक़ी..
होश कुछ भी तन-मन का रख नहीं मैं पाता हूँ
जो भी बात होती है, पल में भूल जाता हूँ..
'सूर' हो न रुसवाई, कुछ ख़याल कर अपना
श्याम का भजन कर ले, ज़िन्दगी है इक सपना..
[मध्य-युग में बुढापे की यथार्थ स्थिति को कविता का विषय बनाना, एहसास के एक मानवीय और संवेदनशील धरातल का संकेत करता है. इस यथार्थ का कोई रूमानी पहलू नहीं है. शैलेश ज़ैदी]
[39]
तुम प्रभु, मोसौं बहुत करी..
नर देही दीनी सुमिरन कौं, मो पापी तें कछु न सरी..
गर्भ-वास अति त्रास, अधोमुख, तहां न मेरी सुध बिसरी..
पावक-जठर जरन नहीं दीन्हौं, कंचन सौं मम देह करी..
जग मैं जनम पाप बहु कीन्हें, आदि अंत लॉन सब बिसरी..
'सूर' पतित, तुम पतित उधारन, अपने बिरद की लाज धरी..
मुझ पर हैं बे-पनाह तुम्हारी इनायतें.
जिस्मे-बशर दिया है कि हम्दे-खुदा करें..
मैं हूँ गुनाहगार, मैं कुछ भी न कर सका
पल भर न राहे-ज़िक्र से होकर गुज़र सका
मैं औंधे मुंह था बत्न में बेहद डरा-डरा
तुमने मेरा ख़याल वहाँ भी बहोत किया..
गरमी की तेज़ आंच में जलने नहीं दिया
सोने सा मेरा जिस्म बनाकर करम किया
दुनिया में आके मैंने किए कितने ही गुनाह
कर बैठा अपना अव्वल्लो-आख़िर सभी तबाह
बदकार हूँ मैं 'सूर', हो तुम मग्फ़िरत के ताज
अपने वक़ारे-ख़ास की रखना है तुमको लाज
[40]
[ यहाँ से श्रीकृष्ण जी के जन्मोत्सव एवं बाल क्रीडाओं के प्रसंग प्रारम्भ होते हैं. यह सूर का विशिष्ट क्षेत्र है जिसमें कोई कवि सूर के बराबर खड़े होने का साहस भी नहीं कर सकता. वात्सल्य के इन्द्रधनुषी मनोरम रंगों को सूर खूब पहचानते हैं और उनकी काव्य-तूलिका इन रंगों को मनोवैज्ञानिक फलक का आधार देकर समूचे चित्र में इस प्रकार पेवस्त कर देती है कि नन्द, यशोदा और गोपियों के साथ सूर के पाठक भी सहज ही मुग्ध हो उठते है- शैलेश जैदी ]
आज नन्द के द्वारैं भीर..
इक आवत, इक जात बिदा ह्वै, इक ठाढ़े मन्दिर के तीर..
कोउ केसरि को तिलक बनावट, कोउ पहिरत कंचकी सरीर..
एकनि कौ गौदान समर्पत, एकनि कौ पहिरावत चीर..
एकनि कौ भूषन पाटंबर, एकनि कौ जू देत नग हीर..
एकनि कौ पुहुपन की माला, एकनि कौ चंदन घसि नीर..
एकनि माथे दूब रोचना, एकनि कौ बोधत दै धीर..
'सूरदास' धनि स्याम सनेही, धन्य जसोदा पुन्य सरीर..
आज नन्द के दरवाज़े पर भीड़ बहोत है.
इक आता है, इक रुखसत लेकर जाता है.
कोई ग्वाला केसर का है तिलक लगाता
कोई गोपी अंगिया ज़ेबे-तन करती है..
नन्द खुशी से करते हैं गोदान किसी को.
और किसी को पहनाते आला पौशाकें
जेवर के हमराह किसी को रेशमी कपडे.
और किसी को बख्श रहे हीरे के नगीने
देते हैं ताज़ा फूलों का हार किसी को.
लेप किसी के जिस्म पे हैं चंदन का लगाते
गो रोचन से सजती है पेशानी किसी की
और किसी को देते हैं बख्शिश की तसल्ली
सूर मुबारकबाद के लायक श्याम से उल्फत रखने वाले..
लायके-सद-तहसीन जशोदा जिनके दम से हैं ये उजाले
[41]
हौं इक नई बात सुनि आई..
महरि जसोदा ढोटा जायो, घर घर होति बधाई..
द्वारैं भीर गोप गोपिन की, महिमा बरनि न जाई..
अति आनंद होत गोकुल मैं, रतन भूमि सब छाई..
नाचत बृद्ध, तरून अरु बालक, गोरस कीच मचाई..
'सूरदास' स्वामी सुख सागर, सुंदर स्याम कन्हाई..
इक नई बात सुन के आई हूँ
मां जसोदा ने बेटा जन्मा है
जश्न घर-घर में है बधाई का
नन्द के दर पे है हुजूमे-गफीर..
ग्वालनें और ग्वाले हैं यकजा .
क्या समां है मैं क्या बयान करूँ
सारा गोकुल है गर्क़ खुशियों में
ढक गई है जवाहरों से ज़मीं.
बच्चे, बूढे, जवान सब-के-सब
रक़्स करते हैं वज्द में आकर
दूध लुढ़का रहे हैं धरती पर
'सूर के आका सुख के हैं सागर
सांवला रूप है कन्हाई का.
[42]
गोद खिलावत कान्ह सुनी बडभागिनि हो नंदरानी..
आनंद की निधि मुख जू लाल कौ, छबि नहिं जात बखानी..
गुन अपार बिस्तार परत नहिं, कहि निगमागम बानी..
'सूरदास' प्रभ कौं लिए जसुमति, चितै चितै मुसुकानी..
सुना है नन्द की ज़ौजा हैं खुश नसीब बहोत
खिला रही हैं कन्हैया को गोद में लेकर.
मसर्रतों का खज़ाना है श्याम का चेहरा
बयाने-हुस्न में हुस्ने-बयान है शशदर..
सिफात इतने हैं वुसअत है जिनकी लामहदूद
ज़बाने-वेद की भी उस जगह न पहोंची नज़र
जशोदा 'सूर' के आका को देख कर खुश हैं
तबस्सुमों की लकीरें हैं उनके होंटों पर..
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सोमवार, 25 अगस्त 2008
उनको शिकवा है / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
उनको शिकवा है कि हम रंजो-अलम पालते हैं
ये इनायात उन्हीं की हैं जो हम पालते हैं
ज़ुल्म करने की कोई वज्ह नहीं होती है
सौ बहाने हैं जिन्हें अहले-सितम पालते हैं
तितलियाँ आती हैं रस लेके चली जाती हैं
फूल फितरत से ये अन्दाज़े-करम पालते हैं
लज़्ज़ते-दीद से दुनिया कभी खाली न रहे
सब इसी शौक़ से दो-चार सनम पालते हैं
लोग उस हुस्न से रखते हैं शिकायात बहोत
और उस हुस्न की खफगी के भी ग़म पालते हैं
मैंने पूछा कि हैं सब क्यों तेरी जुल्फों के असीर
हंस के कहने लगा हम ज़ुल्फ़ों में ख़म पालते हैं
जो कहानी कभी कागज़ पे रक़म हो न सकी
उसको हम प्यार से बा-दीदए-नम पालते हैं
इन्तेशाराते-ज़माना से न हम टूट सके
बात ये है कि ग़लत-फहमियाँ कम पालते हैं
*******************************
ये इनायात उन्हीं की हैं जो हम पालते हैं
ज़ुल्म करने की कोई वज्ह नहीं होती है
सौ बहाने हैं जिन्हें अहले-सितम पालते हैं
तितलियाँ आती हैं रस लेके चली जाती हैं
फूल फितरत से ये अन्दाज़े-करम पालते हैं
लज़्ज़ते-दीद से दुनिया कभी खाली न रहे
सब इसी शौक़ से दो-चार सनम पालते हैं
लोग उस हुस्न से रखते हैं शिकायात बहोत
और उस हुस्न की खफगी के भी ग़म पालते हैं
मैंने पूछा कि हैं सब क्यों तेरी जुल्फों के असीर
हंस के कहने लगा हम ज़ुल्फ़ों में ख़म पालते हैं
जो कहानी कभी कागज़ पे रक़म हो न सकी
उसको हम प्यार से बा-दीदए-नम पालते हैं
इन्तेशाराते-ज़माना से न हम टूट सके
बात ये है कि ग़लत-फहमियाँ कम पालते हैं
*******************************
मैं क्या करूं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
मैं गज़ल की पलकों पे आंसुओं को, न देख पाया मैं क्या करूँ
उसे लफ़्ज़-लफ़्ज़ संवारा, फिर भी न मुस्कुराया मैं क्या करूँ
मैंने कितना चाहा कि होश में, किसी तर्ह उसको मैं ला सकूँ
मैं संभाल पाया न उसको, ऐसा वो डगमगाया मैं क्या करूँ
मैं उड़ा रहा था वरक़-वरक़, सभी ख्वाब आज फ़िजाओं में
मगर एक ख्वाब ने रुक के, मुझको बहोत रुलाया मैं क्या करूँ
मैंने जब से देखा है उसको, एक हसीन साए की शक्ल में
मुझे खौफ़नाक सा लगता है, मेरा अपना साया मैं क्या करूँ
वो मुहब्बतों के गुनाहगार थे, गाँव भर की निगाह में
उन्हें रात दी गयीं सूलियां, मेरा दिल भर आया मैं क्या करूँ
ये जो आहटें हैं उसी की हैं, सरे-शाम कैसे वो आ गया !
मैं अकेला होता तो ठीक था, ऐ मेरे खुदाया मैं क्या करूँ
मैं दरख्त से कोई बात पूछता, जब तक आ गयीं आंधियां
मेरे सामने, उसे जड़ से आँधियों ने गिराया, मैं क्या करूँ
वो जो हर क़दम पे था साथ-साथ, न जाने उसको ये क्या हुआ
वो बरत रहा है अब इस तरह, कि लगे पराया मैं क्या करूँ
********************************
उसे लफ़्ज़-लफ़्ज़ संवारा, फिर भी न मुस्कुराया मैं क्या करूँ
मैंने कितना चाहा कि होश में, किसी तर्ह उसको मैं ला सकूँ
मैं संभाल पाया न उसको, ऐसा वो डगमगाया मैं क्या करूँ
मैं उड़ा रहा था वरक़-वरक़, सभी ख्वाब आज फ़िजाओं में
मगर एक ख्वाब ने रुक के, मुझको बहोत रुलाया मैं क्या करूँ
मैंने जब से देखा है उसको, एक हसीन साए की शक्ल में
मुझे खौफ़नाक सा लगता है, मेरा अपना साया मैं क्या करूँ
वो मुहब्बतों के गुनाहगार थे, गाँव भर की निगाह में
उन्हें रात दी गयीं सूलियां, मेरा दिल भर आया मैं क्या करूँ
ये जो आहटें हैं उसी की हैं, सरे-शाम कैसे वो आ गया !
मैं अकेला होता तो ठीक था, ऐ मेरे खुदाया मैं क्या करूँ
मैं दरख्त से कोई बात पूछता, जब तक आ गयीं आंधियां
मेरे सामने, उसे जड़ से आँधियों ने गिराया, मैं क्या करूँ
वो जो हर क़दम पे था साथ-साथ, न जाने उसको ये क्या हुआ
वो बरत रहा है अब इस तरह, कि लगे पराया मैं क्या करूँ
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रविवार, 24 अगस्त 2008
वो फूल अब कहाँ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
जिन में लपक हो शोलों की वो फूल अब कहाँ
बेकार ज़ाया करते हो तुम रोज़ो-शब कहाँ
इस दौर का खुलूस भी है मस्लेहत-शनास
मिलते हैं लोग रोज़, मगर बे-सबब कहाँ
उन्वाने-फ़िक्र आज है दहशतगरों का ज़ह्र
कुछ भी पता नहीं कि ये फैलेगा कब, कहाँ
अब चाँदनी का हुस्न भी सबके लिए नहीं
गुरबत की ठोकरों में है हुस्ने-तलब कहाँ
हर साज़ तेज़-गाम, हर आवाज़ तेज़-रव
ठहराव आज मक़्सदे-बज़्मे-तरब कहाँ
कच्चे मकानों में भी न बाक़ी बचा खुलूस
वो सादगी, वो प्यार, वो जीने के ढब कहाँ
सैराब पहले से हैं जो दरिया उन्हीं का है
साहिल तक आ सकेंगे कभी तशना-लब कहाँ
क्यों तुमको साया-दार दरख्तों की है तलाश
इस दौरे-बे-अदब में मिलेगा अदब कहाँ
*********************
बेकार ज़ाया करते हो तुम रोज़ो-शब कहाँ
इस दौर का खुलूस भी है मस्लेहत-शनास
मिलते हैं लोग रोज़, मगर बे-सबब कहाँ
उन्वाने-फ़िक्र आज है दहशतगरों का ज़ह्र
कुछ भी पता नहीं कि ये फैलेगा कब, कहाँ
अब चाँदनी का हुस्न भी सबके लिए नहीं
गुरबत की ठोकरों में है हुस्ने-तलब कहाँ
हर साज़ तेज़-गाम, हर आवाज़ तेज़-रव
ठहराव आज मक़्सदे-बज़्मे-तरब कहाँ
कच्चे मकानों में भी न बाक़ी बचा खुलूस
वो सादगी, वो प्यार, वो जीने के ढब कहाँ
सैराब पहले से हैं जो दरिया उन्हीं का है
साहिल तक आ सकेंगे कभी तशना-लब कहाँ
क्यों तुमको साया-दार दरख्तों की है तलाश
इस दौरे-बे-अदब में मिलेगा अदब कहाँ
*********************
यह जानना अभी शेष है / शैलेश ज़ैदी
'भारत माता की जय' और 'जय श्रीराम' !
कितने पवित्र हैं यह शब्द और इनकी ध्वनियाँ !
किसी छोटे से जलाशय में
जिसमें गन्दगी भरी हो
यदि इन शब्दों को डुबो दिया जाय
तो यह कुरूप तो हो सकते हैं
पवित्र फिर भी रहेंगे.
कलाकृतियाँ चाहे हुसैन की हों
या आपकी या मेरी
उन्हें परखने के लिए दृष्टि चाहिए
और यह दृष्टि केसरिया दिमागों में नहीं है.
श्रीराम और भारत माता जैसे पवित्र शब्द भी
इन दिमागों की संकीर्ण परिधियों में
सिकुड़ गए हैं
और इनसे मुक्त होकर
अपनी सुगंध फैलाने के लिए छटपटा रहे हैं.
कलाकृतियाँ नष्ट करने से
सांस्कृतिक धरोहर फालिज-ग्रस्त हो सकते हैं
और जय श्री राम का सांस्कृतिक धरोहर भी
अपना अर्थ खो सकता है.
केसरिया दिमागों को
यह जानना अभी शेष है.
********************
[नई दिल्ली में एम्. ऍफ़. हुसैन के पक्ष में लगाई गई एक प्रदर्शनी में 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' का नारा लगाते हुए एक समूह ने वितंडावाद फैलाया और कई पेंटिंग्स नष्ट कर दीं .इस समाचार ने जन्म दिया है 'यह जानना अभी शेष है' कविता को. शैलेश ज़ैदी ]
कितने पवित्र हैं यह शब्द और इनकी ध्वनियाँ !
किसी छोटे से जलाशय में
जिसमें गन्दगी भरी हो
यदि इन शब्दों को डुबो दिया जाय
तो यह कुरूप तो हो सकते हैं
पवित्र फिर भी रहेंगे.
कलाकृतियाँ चाहे हुसैन की हों
या आपकी या मेरी
उन्हें परखने के लिए दृष्टि चाहिए
और यह दृष्टि केसरिया दिमागों में नहीं है.
श्रीराम और भारत माता जैसे पवित्र शब्द भी
इन दिमागों की संकीर्ण परिधियों में
सिकुड़ गए हैं
और इनसे मुक्त होकर
अपनी सुगंध फैलाने के लिए छटपटा रहे हैं.
कलाकृतियाँ नष्ट करने से
सांस्कृतिक धरोहर फालिज-ग्रस्त हो सकते हैं
और जय श्री राम का सांस्कृतिक धरोहर भी
अपना अर्थ खो सकता है.
केसरिया दिमागों को
यह जानना अभी शेष है.
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[नई दिल्ली में एम्. ऍफ़. हुसैन के पक्ष में लगाई गई एक प्रदर्शनी में 'जय श्रीराम' और 'भारत माता की जय' का नारा लगाते हुए एक समूह ने वितंडावाद फैलाया और कई पेंटिंग्स नष्ट कर दीं .इस समाचार ने जन्म दिया है 'यह जानना अभी शेष है' कविता को. शैलेश ज़ैदी ]
मैं तब भी आगे बढूंगा / शैलेश ज़ैदी
हवाएं मेरे पक्ष में नहीं हैं
यह जानते हुए भी मैं आगे बढ़ रहा हूँ
निरंतर आगे बढ़ रहा हूँ
कंटीली झाडियाँ हवाओं के साथ हैं
वे चाहती हैं कि मेरे शरीर पर खरोंच आ जाय.
मेरे पैरों में कांटे चुभ जाएँ
मेरी गति धीमी पड़ जाय
मैं वहाँ न पहुँच सकूँ
जहाँ कुछ लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
हवाएं झाडियों के साथ
कानाफूसी कर रही हैं
मैं एक-एक शब्द सुनते हुए भी
आगे बढ़ रहा हूँ
मुझे विशवास है अपने पैरों पर
अपने संकल्प पर.
मैं वहाँ ज़रूर पहोंचूंगा
जहाँ कुछ लीग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
लेकिन मैं अगर वहाँ पहोंच गया
और लोग वहाँ नहीं मिले
तब ?
मैंने उनके पैरों के निशान तलाश किए
और निशान नहीं मिले
तब ?
मैंने उन्हें आवाजें दीं
और उत्तर नहीं मिला
तब ?
मैं तब भी आगे बढूंगा
अपने निशान छोड़ता हुआ
अपनी आवाजें बिखेरता हुआ
दरख्त की एक-एक टहनी से
अपनी बात कहता हुआ.
***********************
यह जानते हुए भी मैं आगे बढ़ रहा हूँ
निरंतर आगे बढ़ रहा हूँ
कंटीली झाडियाँ हवाओं के साथ हैं
वे चाहती हैं कि मेरे शरीर पर खरोंच आ जाय.
मेरे पैरों में कांटे चुभ जाएँ
मेरी गति धीमी पड़ जाय
मैं वहाँ न पहुँच सकूँ
जहाँ कुछ लोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
हवाएं झाडियों के साथ
कानाफूसी कर रही हैं
मैं एक-एक शब्द सुनते हुए भी
आगे बढ़ रहा हूँ
मुझे विशवास है अपने पैरों पर
अपने संकल्प पर.
मैं वहाँ ज़रूर पहोंचूंगा
जहाँ कुछ लीग मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं.
लेकिन मैं अगर वहाँ पहोंच गया
और लोग वहाँ नहीं मिले
तब ?
मैंने उनके पैरों के निशान तलाश किए
और निशान नहीं मिले
तब ?
मैंने उन्हें आवाजें दीं
और उत्तर नहीं मिला
तब ?
मैं तब भी आगे बढूंगा
अपने निशान छोड़ता हुआ
अपनी आवाजें बिखेरता हुआ
दरख्त की एक-एक टहनी से
अपनी बात कहता हुआ.
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दीवार पर टंगा आदमी / शैलेश ज़ैदी
वह लकड़ी से तराशी हुई कोई मैना नहीं है
जिसे मैं कमरे की दीवार पर टांग दूँ
और वह फुर से उड़ जाने के बजाय
कमरे में नज़रबंद हो जाय.
वह कंप्यूटर से संचालित कोई रोबोट भी नहीं है
जिसे मैं जहाँ और जैसे चाहूँ इस्तेमाल करुँ
और जब इच्छा हो
राख के ढेर में तब्दील कर दूँ.
मैंने जब से आँखें खोली हैं
उसे बार-बार देखा है
रूप और रंग बदलते
लहू के कई काई दरिया एक साथ फलांगते
अच्छे-भले आदमी के दिमाग के भीतर
पर्त-दर-पर्त उतरते.
मैंने देखा है कि उसके हाथ
उसकी उंगलियाँ, उसके जबड़े
सब आदमी के पेट के भीतर हैं
और यह आदमी !
अपने पेट के भीतर होने के बजाय
लकड़ी से तराशी मैना की तरह
दीवार पर टंगा है.
अन्तर केवल इतना है
कि लकड़ी की मैना
लकडी की भाषा जानती है
और दीवार पर टंगा आदमी
अपनी भाषा भूल चुका है.
*************************
जिसे मैं कमरे की दीवार पर टांग दूँ
और वह फुर से उड़ जाने के बजाय
कमरे में नज़रबंद हो जाय.
वह कंप्यूटर से संचालित कोई रोबोट भी नहीं है
जिसे मैं जहाँ और जैसे चाहूँ इस्तेमाल करुँ
और जब इच्छा हो
राख के ढेर में तब्दील कर दूँ.
मैंने जब से आँखें खोली हैं
उसे बार-बार देखा है
रूप और रंग बदलते
लहू के कई काई दरिया एक साथ फलांगते
अच्छे-भले आदमी के दिमाग के भीतर
पर्त-दर-पर्त उतरते.
मैंने देखा है कि उसके हाथ
उसकी उंगलियाँ, उसके जबड़े
सब आदमी के पेट के भीतर हैं
और यह आदमी !
अपने पेट के भीतर होने के बजाय
लकड़ी से तराशी मैना की तरह
दीवार पर टंगा है.
अन्तर केवल इतना है
कि लकड़ी की मैना
लकडी की भाषा जानती है
और दीवार पर टंगा आदमी
अपनी भाषा भूल चुका है.
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फूल का लाल होना / शैलेश ज़ैदी
मेरे आँगन में जो फूल खिला है
उसका रंग लाल है.
मैं रोज़ सुबह उसे देखता हूँ
वह कभी नहीं मुरझाता
सूरज की किरणें उसे और भी चमका देती हैं
रात उसकी सुर्खी को
अपने अंधेरों में डुबो नहीं पाती.
उसका दहकता लाल रंग
प्रतिकूल परिस्थितियों में
और भी दहकने लागता है
फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
मैं फूल को हमेशा लाल ही देखता हूँ
मेरे आँगन में जो फूल खिला है
वह अगर मेरे आँगन में न भी होता
तो भी लाल होता
हर वह आँगन जहाँ कोई फूल खिलता है
मेरा अपना आँगन होता है
और मेरा आँगन
मेरे भीतर कहीं दूर-दूर तक फैला हुआ है.
रात मेरे आँगन में उतरने से डरती है
और अगर कभ उतर भी आए
तो मैं उसे एक काला चमकदार पत्थर समझूंगा
अपने ढंग से तराशूंगा
और अपने आँगन के उजले फर्श में
संग-मर्मर में जडी लिखावट की तरह
अक्षर-अक्षर जड़ दूंगा
ताकि रात कैदी बनी रहे
ताकि मेरे आँगन का सुर्ख-सफ़ेद चेहरा
और भी धारदार हो जाय.
ताकि लोग जान लें
की फूल का रंग चाहे जैसा भी हो
सिर्फ़ लाल होता है
और फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
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उसका रंग लाल है.
मैं रोज़ सुबह उसे देखता हूँ
वह कभी नहीं मुरझाता
सूरज की किरणें उसे और भी चमका देती हैं
रात उसकी सुर्खी को
अपने अंधेरों में डुबो नहीं पाती.
उसका दहकता लाल रंग
प्रतिकूल परिस्थितियों में
और भी दहकने लागता है
फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
मैं फूल को हमेशा लाल ही देखता हूँ
मेरे आँगन में जो फूल खिला है
वह अगर मेरे आँगन में न भी होता
तो भी लाल होता
हर वह आँगन जहाँ कोई फूल खिलता है
मेरा अपना आँगन होता है
और मेरा आँगन
मेरे भीतर कहीं दूर-दूर तक फैला हुआ है.
रात मेरे आँगन में उतरने से डरती है
और अगर कभ उतर भी आए
तो मैं उसे एक काला चमकदार पत्थर समझूंगा
अपने ढंग से तराशूंगा
और अपने आँगन के उजले फर्श में
संग-मर्मर में जडी लिखावट की तरह
अक्षर-अक्षर जड़ दूंगा
ताकि रात कैदी बनी रहे
ताकि मेरे आँगन का सुर्ख-सफ़ेद चेहरा
और भी धारदार हो जाय.
ताकि लोग जान लें
की फूल का रंग चाहे जैसा भी हो
सिर्फ़ लाल होता है
और फूल का लाल होना
फूल का स्वभाव नहीं है
मेरी ज़रूरत है.
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आख़िर क्यों हुआ ऐसा ! / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
बरहना हो गये सब ख्वाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
बता मुझ को दिले-बेताब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
निकलती आई थी अब तक जो तूफानों की ज़द से भी
वो कश्ती हो गई गर्क़ाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
हवा कैसी चली जिसके असर से ख़ुद मेरे घर के
हुए लायानी सब आदाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
सभी कहते थे वो राहें बहोत महफूज़ थीं फिर भी
सभी के लुट गये अस्बाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
समंदर में महारत थी जिसे गोंते लगाने की
उसी पर सख्त थे गिर्दाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
दिया था साथ मैं ने हक़ का, इसमें क्या बुराई थी
हुए दुश्मन सभी अहबाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
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बता मुझ को दिले-बेताब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
निकलती आई थी अब तक जो तूफानों की ज़द से भी
वो कश्ती हो गई गर्क़ाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
हवा कैसी चली जिसके असर से ख़ुद मेरे घर के
हुए लायानी सब आदाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
सभी कहते थे वो राहें बहोत महफूज़ थीं फिर भी
सभी के लुट गये अस्बाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
समंदर में महारत थी जिसे गोंते लगाने की
उसी पर सख्त थे गिर्दाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
दिया था साथ मैं ने हक़ का, इसमें क्या बुराई थी
हुए दुश्मन सभी अहबाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
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लेबल:
ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
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