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रविवार, 24 अगस्त 2008

दीवार पर टंगा आदमी / शैलेश ज़ैदी

वह लकड़ी से तराशी हुई कोई मैना नहीं है
जिसे मैं कमरे की दीवार पर टांग दूँ
और वह फुर से उड़ जाने के बजाय
कमरे में नज़रबंद हो जाय.

वह कंप्यूटर से संचालित कोई रोबोट भी नहीं है
जिसे मैं जहाँ और जैसे चाहूँ इस्तेमाल करुँ
और जब इच्छा हो
राख के ढेर में तब्दील कर दूँ.

मैंने जब से आँखें खोली हैं
उसे बार-बार देखा है
रूप और रंग बदलते
लहू के कई काई दरिया एक साथ फलांगते
अच्छे-भले आदमी के दिमाग के भीतर
पर्त-दर-पर्त उतरते.

मैंने देखा है कि उसके हाथ
उसकी उंगलियाँ, उसके जबड़े
सब आदमी के पेट के भीतर हैं
और यह आदमी !
अपने पेट के भीतर होने के बजाय
लकड़ी से तराशी मैना की तरह
दीवार पर टंगा है.

अन्तर केवल इतना है
कि लकड़ी की मैना
लकडी की भाषा जानती है
और दीवार पर टंगा आदमी
अपनी भाषा भूल चुका है.
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