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रविवार, 24 अगस्त 2008

आख़िर क्यों हुआ ऐसा ! / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बरहना हो गये सब ख्वाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
बता मुझ को दिले-बेताब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
निकलती आई थी अब तक जो तूफानों की ज़द से भी
वो कश्ती हो गई गर्क़ाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
हवा कैसी चली जिसके असर से ख़ुद मेरे घर के
हुए लायानी सब आदाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
सभी कहते थे वो राहें बहोत महफूज़ थीं फिर भी
सभी के लुट गये अस्बाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
समंदर में महारत थी जिसे गोंते लगाने की
उसी पर सख्त थे गिर्दाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
दिया था साथ मैं ने हक़ का, इसमें क्या बुराई थी
हुए दुश्मन सभी अहबाब, आख़िर क्यों हुआ ऐसा ?
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सोमवार, 11 अगस्त 2008

अब ये बेहतर है कि हम तोड़ दें सारे रिश्ते / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[ 1 ]
अब ये बेहतर है कि हम तोड़ दें सारे रिश्ते
देर-पा होते नहीं प्यार में झूठे रिश्ते
अपने हक़ में कोई मद्धम सा उजाला पाकर
रास्ता अपना बदल लेते हैं कच्चे रिश्ते
कुछ भी हालात हों, हालात से होता क्या है
दिल भले टूटे, नहीं टूटते दिल के रिश्ते
थक के मैदानों से जाओ न पहाड़ों की तरफ़
जान लेवा हैं, चटानों के ये ऊंचे रिश्ते
जिन में गहराई मुहब्बत की मिलेगी तुम को
देखने में वो बहोत होते हैं सादे रिश्ते।
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