शनिवार, 1 अगस्त 2009

हमेँ ज़मीन पे रह्ते हुए ज़माना हुआ ।

हमेँ ज़मीन पे रह्ते हुए ज़माना हुआ ।
क़यामे-ख़ुल्दे-बरीं अब तो इक फ़साना हुआ॥

ये शह्र क्या था न आबादियाँ न घर न सड़क,
यहाँ वो आता गया जिस का आबो-दाना हुआ ॥

किवाड़ें घर की नहीं चौखटों के क़ब्ज़े में,
इन्हें ये ग़म है, वो इस घर से क्यों रवाना हुआ ॥

बक़ा के लमहे फ़ना में तलाश करता है,
अजीब शख़्स है मस्ते-ख़्रराब ख़ाना हुआ ॥

ख़याल आता है उस बज़्मे-मह्वशाँ का मुझे,
बहोत से लोग थे ये दिल ही क्यों निशाना हुआ ॥

न मिलना चाहता था वो तो साफ़ कह देता,
वो जा रहा है कहीं ये महज़ बहाना हुआ ॥

ज़माना करता है तशहीर कारनामों की,
के इस जहान में कल ज़िक्र कुछ हुआ न हुआ ॥
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