मुड़ के देखा था फ़क़त हो गया पत्थर नाहक़ ।
ओढ़ना चाहता था माज़ी की चादर नाहक़ ॥
मैं था साहिल पे खड़ा उसके ख़यालात लिये,
ख़ैरियत पूछने आया था समन्दर नाहक़ ॥
हक़-पसन्दी न मेरी कुछ भी मेरे काम आयी,
मिल गयी ख़ाक मेँ अज्दाद की इज़्ज़त नाहक़॥
उसकी तस्वीर तो दिल मेँ ही थी, देखी न गयी,
लोग करते रहे ता-उम्र इबादत नाहक़ ॥
अच्छा-ख़ासा इसी दुनिया के मुताबिक़ था मिज़ाज,
उस में क्यों घोल दिया रंगे-शराफ़त नाहक़ ॥
जिस को बेताबिए-दिल की भी कोई फ़िक्र न हो,
उसकी जानिब हुई माएल ये तबीअत नाहक़ ॥
इतना मसरूफ़ रहा वादों की पर्वा भी न की,
मिल के अहबाब से होती है निदामत नाहक़ ॥
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1 टिप्पणी:
मुग्ध हूँ । उच्च स्तर की रचना से सामना हुआ अभी । धन्यवाद ।
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