दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़ ।
हो आयें चलिए मीर तक़ी मीर की तरफ़ ॥
कहता है दिल के एक झलक उसकी देख लूं ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़ ॥
मैं चख चुका हुं ख़ाना-तबाही का ज़ायेक़ा ,
जाऊंगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़ ॥
इक ख़्वाब है के आँखों में आता है बार-बार,
इक ख़ौफ़ है के जात है ताबीरा की तरफ़ ॥
हालाते-शह्र मुझ से जिसे छीन ले गये,
माएल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़॥
ज़िद थी मुझे के उस से करूंगा न इल्तेजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तक़दीर की तरफ़्॥
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2 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा अशआर में डूबी ग़ज़ल!
'ज़िद थी मुझे…'
बहुत ख़ूब! शानदार। क्या तेवर हैं!हार्दिक बधाई।
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